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१६ पूरा गाँव थम सा गया था। किसी के मुंह से कोई भी आवाज नहीं निकल रही थी। कोई भी घर से बाहर निकलकर नहीं बोल रहा है चलो , देख आते हैं। जैसा कि किसी ‘ कोकुआभय ’ का सन्नाटा सा छा गया हो पूरे गांव में। उस समय तक गांव वाले पूरे साल भर का काम धन्धा खत्म कर चुके थे। सुनहरे धान के गुच्छों से कभी भरे हुये थे आंगन आज खाली होकर सुनहरी धूप से भरे हुये थे। अभी-अभी ही लौटी थी माँ लक्ष्मी , पूरे मार्गशीष महीने व्यस्त रहने के बाद। दिन सब छोटे और रात सब लंबी होती जा रही थी। शाम को जल्दी-जल्दी खाना खाकर , लोग रजाई गुदडी ओढ़कर सो जा रहे थे। खेतिहर किसान खुश थे कि अगले साल के लिये फसल इकट्ठी हो गयी। भूमिहीन किसान भी खुश थे कि इधर-उधर से , अगले एक महीना के लिये उनका भी जुगाड हो गया था। अभी और , हाथों में किसी भी प्रकार का काम नहीं था। खेतों में भी कोई काम नहीं था , सारे खेत किसी बूढ़े की दाढ़ी की भाँति राख के रंग जैसे मलिन दीख रहे थे। हाथों में कोई काम नहीं था , इसलिये मुट्ठियों से खेल रहे थे ताश के पत्ते। देखते-देखते सुबह , देखते-देखते सांझ बीतते जाते थे। गांव के मार्ग में जगह-जगह आग जलाकर लोग , बैठे बैठे इ