प्राक्कथन
प्राक्कथन
सरोजिनी साहू का नाम न केवल हमारे देश के वरन् अंतराष्ट्रीय स्तर के
गिने-चुने साहित्यकारों में लिया जाता है। अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इस महान
नारीवादी लेखिका की उड़िया भाषा में अब तक दस कहानी-संग्रह तथा दस उपन्यास
प्रकाशित हो चुके हैं। नारीत्व से संबंधित विभिन्न समस्याओं को उजागर करने में
स्पष्टवादिता व पारदर्शिता के लिये साहित्य जगत में उन्होंने अपनी एक अमिट छाप
छोड़ी है। आपके उपन्यास व कहानी- संग्रह देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं जैसे बंगाली, मलयालम, अंग्रेजी व फ्रेंच में अनूदित हुये है।
आपकी बहुचर्चित कहानियां हापर कालिन्स,
नेशनल
बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी व ज्ञानपीठ से प्रकाशित
होती रही है। संप्रति उड़ीसा के एक डिग्री काँलेज में अध्यापन कार्य में रत होने
के अलावा अंग्रेजी-पत्रिका ‘इंडियन ऐज’ की सह-संपादिका तथ न्यूमेन काँलेज,
केरल
द्वारा प्रकाशित ‘इंडियन जर्नल आँफ पोस्ट कोलोनियल
लिटरेचर’, के सलाहाकार मंडल की विशिष्ट सदस्या
है। पाश्चात्य जगत में आपको 'इंडियन सीमोन डी बीवोर' के नाम से जाना जाता है। साहित्य में आपके उत्कृष्ट योगदान के लिये उड़ीसा
साहित्य अकादमी, झंकार पुरस्कार, भुवनेश्वर पुस्तक मेला पुरस्कार,
प्रजातंत्र
पुरस्कार एवं नेशनल एलायंस आँफ वूमेन आर्गेनाइजेशन द्वारा समय-समय पर सम्मानित
होती रही है।
लेखिका अपने अंग्रेजी ब्लाँग 'सेंस एंड सेंसुअलिटी' में सनातन काल से मानव मस्तिष्क पर अधिकार जमाये हुये धार्मिक आडम्बरों व
सामाजिक ढ़कोसलों, चाहे वे पाश्चात्य जगत के हो या हमारे
देश के, का खंडन करते हुये मानव-मन की सुषुप्त
अंतस इच्छाओं का जिस पारदर्शिता व निडरता के साथ विश्लेषण किया है, कि विश्व का कोई भी बुद्धिजीवी वर्ग उनकी विश्वसनीयता व सत्यता को अपनाने
से इंकार नहीं कर सकता। यह वही ब्लाँग था,
जिससे
मेरे अंदर एक वैचारिक मंथन पैदा हुआ तत्पश्चात् उनके अंग्रेजी अनूदित उपन्यास 'डार्क एबोड' कहानी संग्रह -'वेटिंग फाँर मन्ना' एवं 'सरोजिनी साहूज स्टोरीज' पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। ठीक जिस प्रकार से हिन्दी के प्रसिद्ध
उपान्यसकार देवकी नंदन खत्री की कृति 'चन्द्रकांता संतति' को पढ़ने के लिये कई विदेशी हिन्दी भाषा की ओर आकृष्ट हुये, ठीक उसी प्रकार लेखिका की अन्य मौलिक रचनाओं को उड़िया भाषा में सुनने व
समझने की तीव्र अभिलाषा मुझमें पैदा हुई। यह मेरे लिये परम सौभाग्य की बात थी कि
विगत पन्द्रह सालों से मैं उड़ीसा की लोक-संस्कृति,
साहित्य
व समाज से परिचित रहा हूँ। अतः यह मेरी हार्दिक इच्छा थी कि सुसमृद्ध उड़िया
साहित्य को राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद कर उत्कल भूमि के प्रति अपना आभार
व्यक्त करुं, साथ ही साथ हिन्दी जगत को इस अनमोल
धरोहर से परिचित करा सकूं। इस पुनीत कार्य के लिये,
मैने
सरोजिनी साहू के बहुचर्चित उपन्यास ‘पक्षी-वास’ तथा उनकी चुनिंदा श्रेष्ठ कहानियां,
जो मेरे
ब्लाँग (http://sarojinisahoostories.blogspot.com ) पर उपलब्ध है, को चुना। ईश्वर की असीम कृपा से यह
यज्ञ सम्पन्न हुआ तथा अनुवाद के क्षेत्र में मेरा प्रथम प्रयास आपके हाथों मे है।
लेखिका का उपन्यास 'पक्षी-वास' के बारे में संक्षिप्त में कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी- -''देखन में छोटो लागे, पर घाव करे गम्भीर''. सही शब्दों में ,'पक्षी-वास' एक छोटा-सा उपन्यास होने के बावजूद भी जिन बहुआयामी पहेलुओं एवं व्यावहारिक
परिदृश्यों की पृष्ठभूमि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है, कि कोई भी सुधी पाठक अंतर्मन से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता है।
भले ही, उड़ीसा प्रांत तरह-तरह की प्राकृतिक
संपदाओं से भरपूर है, फिरभी यहां का आम आदमी किस कदर भूख से
जीवन यापन करता है, उसका मर्मान्तक चित्रण लेखिका ने
उड़ीसा प्रांत के पश्चिमी इलाकों जैसे कोरापुट,
बोलांगीर
आदि जिलों में रहने वाले आदिवासियों के जीवन पर गहन शोध कर अपने उपन्यास 'पक्षी-वास' के माध्यम से पेश किया है। जंगल में
रहने वाले ऐसे ही कुछ सतनामी सम्प्रदाय के वाशिंदे,
उड़ीसा
के पश्चिमी इलाकों से लेकर दूर-दराज छत्तीसगढ़ के बस्तर तक फैले हुये हैं। इस
सम्प्रदाय का पुश्तैनी धंधा गावों में घूम-घूमकर जानवरों की अस्थि, मांस-मज्जा इकत्रित कर मुर्शिदाबादी पठानों को बेचकर अपनी आजीविका कमाना
है।
यह उपन्यास एक ऐसे ही गरीब आदमी के परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, जो कि निम्न श्रेणी का यह कार्य करते हुये भी अध्यात्मवाद की पराकाष्ठा को
अपने भीतर संजोये रखता है। उसका वही दर्शन,
वही
अध्यात्मवाद उसके जीवन में आयी प्रतिकूलताओं में भी समदर्शी होकर डटे रहने का
आह्वान करता है। विषम परिस्थितियों से एक सुखी परिवार के सारे सपने बुरी तरह से
छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, बुढ़ापे की लाठी टूट जाती है और बची रह
जाती है वृद्धावस्था की मायूसी, असह्य अकेलापन, बेसहारा व बेबस जिंदगी।
उपन्यास मूलभूत से एक मानवीय चीत्कार है उस परिवार की, जिसमें केवल दुःख के काले बादल मँडराते ही रहते है। कोई भी परिवार का
पुश्तैनी धंधा अपनाना नहीं चाहता है। पहला बेटा ‘सन्यासी’
बचपन में
फादर इमानुअल साहिब के धर्मांतरण पर्व में ‘क्रिस्टोफर’ बन जाता है, बड़ा होकर जापान चला जाता है, फिर कभी लौटता ही नहीं है। दूसरा बेटा ‘डाक्टर’बंधुआ मजदूर बनकर गाँव से गायब हो जाता
है तीसरा बेटा ‘वकील’
नक्सल
में भर्ती हो जाता है और जंगल में पुलिस-मुठभेड़ में मारा जाता है। सबसे छोटी
इकलौती बेटी परबा पापी पेट की खातिर रायपुर कोठे में पहुंच जाती है, जहाँ से उसका लौट आना संभव ही नहीं है। उपन्यास का विस्तार भोपाल से जापान, किसिंडा से रायपुर, सिडिंगागुड़ा से सीनापाली तक है।
आधे से ज्यादा उड़ीसा प्रांत में फैले नक्सल आंदोलन के मूलभूत कारणों जैसे
गरीब व अमीर में बढ़ती खाई, सरकारी आला अधिकारियों की
भ्रष्ट-प्रवृति आदि को उजागर करने वाला यह उपन्यास अपने आप में एक अलग अहमियत रखता
है। जहाँ जंगल के वाशिंदों को यह पता नहीं,
कि
सरकार कौन है ? सरकार कहां है ? वहां सरकार उनके लिये भुवनेश्वर दिल्ली से ढाँचागत सुविधायें जैसे सड़कें, कुयें और बीपीएल चावल मुहैया कराने की व्यवस्था करती है। पर गाँव तक
पहुँचते-पहुँचते सब चोरी हो जाते है। चोरी हो जाते है, गाँव की युवक-युवतियां। गायब होते-होते पूरा गाँव सुना पड़ जाता है। फिर भी
सरकारी तंत्र सक्रिय रहता है, सरकारी सुविधाओं का लुत्फ उठाते सरकारी
कर्मचारी, अधिकारी-गण गांवों में घूम-घूमकर भूख
से बेहाल, बिलबिलाते निर्बल बुजुर्गों से उनके
घरों की जन-गणना का हिसाब लेते है। खाली गाँव पाकर कहते है बच्चों को मत बेचो। आम
की गुठलियाँ के मांड का सेवन मत करो,
वरना
पेट खराब हो जायेगा। "पर उपदेश,
कुशल
बहुतेरे" की तर्ज पर पोषक तत्वों से युक्त खाना खाने का उपदेश देते हैं।
परन्तु वास्तविकता तो यह है कि फारेस्ट-गार्ड जैसे दरिंदे, भूख से तड़पती परबा जैसी युवतियों को मुट्ठी भर चावल के बदले अपनी हवस का
शिकार बना लेते है।
यह उपन्यास अपने आप में एक कविता ही है. एक विद्रोह की कविता, एक असफल क्रोध की कविता, जो पाठक को पहुंचा देती है राजधानिओं,शहरों तथा कस्बों की 'सॉफ्टवेर संस्कृति' से दूर बसे एक अलग भारतवर्ष में।
.
उपन्यास के मूल सूत्र, मुख्य-चरित्र 'अंतरा' के परिवार;भागवत के 'एकादश स्कंध' के 'अष्टम अध्याय' में वर्णित कपोत-कपोती संवाद से जोड़ा गया है,
जिसमे
यदुवंश के राजा को अवधूत अपने चौबीस गुरुओं के बारे में बता रहा है। उपन्यास के
समूचे घटना-क्रम को अगर भागवत की कपोत-कपोती प्रसंग में देखा जाए पूरी तरह से वैसी
ही घटना घटित होती प्रतीत होती है। लेखिका का प्रयोग सफल साबित हुआ है. और उपन्यास
को एक नान्दनिक तथा दार्शनिक आयाम प्रदान करता है.
यद्यपि उड़िया मेरी मातृभाषा नहीं है,
तथापि
पन्द्रह सालों से उड़ीसा के परिवेश में रहने से उड़िया-भाषा का व्यावहारिक ज्ञान की
जानकारी अवश्य हुई, परन्तु किसी उड़िया-उपन्यास का हिन्दी
में अनुवाद कर सकूं, इतनी भाषा पर मेरी पकड़ नहीं थी। यह
अनुवाद तभी संभव हो सका, जब उड़िया भाषा की साहित्यिक व तकनीकी
शब्दावली के साथ-साथ पात्रों की भाव-भंगिमाओं के यथार्थ चित्रण में मेरे परममित्र
श्री अनिल दाश ने अपना हार्दिक सहयोग प्रदान किया। सही अर्थों में, इस उपन्यास की रचना में अनिल दाश एक नींव की ईट है। जिसके लिये मैं उन्हें
तहे-दिल से धन्यवाद देता हूँ। इसके अतिरिक्त पांडुलिपि निरीक्षण में मेरे मित्र
श्री विजय कुमार खरद, श्री अशोक कुमार तथा उनकी धर्मपत्नी
रिंकु कुमारी एवं मेरी धर्मपत्नी शीतल माली का भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने अपना अमूल्य समय निकालकर सूक्ष्मता के साथ ध्यानपूर्वक पांडुलिपी
का निरीक्षण किया।
अंत में, मैं मूल लेखिका श्रीमती सरोजिनी साहू व
उनके प्रतिष्ठित लेखक पति श्री जगदीश मोहंती को समय-समय पर इस संदर्भ में उचित
मार्गदर्शन व सहयोग प्रदान करने हेतु शत-शत नमन करता हूँ।
पुनश्च, मेरा श्रम तभी सार्थक होगा जब आप
उपन्यास की अंतर्निहीत भावनाओं को समझे तथा अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत करायें।
इन्हीं चंद शब्दों के साथ,
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