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उस समय प्रधान और शा खानदान के हरे भरे खेतों के कच्चे धानों में क्षीर भर गया था। खेतों के अन्दर होकर जाते समय महकी-महकी मीठी सुंगध से जी भर जाता था। उस समय उदंती के उस तरफ, पंजा भर चांदनी की रोशनी में जैसे, झूला झूल रहे थे कास के फूल। पेड़ों के शिखर पर तपस्वी जैसे बैठे हुये बगुले के झुण्ड, ऐसा लग रहा था कि पेड़ सफेद फूलों से लदा हुआ हो और गगन में एक सुनहरी चद्दर बिछाकर, एक राजकुमारी की तरह सोये हुये हो बादल।
आऊँगी, आऊँगीकहकर सर्दी फिर भी नहीं आयी थी। भोर-भोर में हल्की-हल्की गुलाबी ठंड पड़ती थी। रात भर भीगे हुये होठों से ओस चुंबन करता जा रहा था पेड-पौधों को। एक मात्र श्रृंगार की तरह नींद उतर आयी थी आँखों की पलकों में।
ऐसी ऋतु में जंगल चंचल हो उठता है, लकड़ी वालों से लेकर ठेकेदारों तक, मौका पाकर घुस जाते है जंगल में। ठक्-ठक् शब्दों से भर उठता है वातावरण। किसी को चाहिये लकड़ी, तो किसी को चाहिये पत्थर। उदंती के उस पार से सुनाई पडते है पत्थर तोडने वालों के गीत। कुछ लोग धरती चीर कर खोजते रहते हैं रत्न, मणि,माणिक और अनमोल पत्थर। अनछुए, कभी नहीं पहने हुए अद्वितीय नीलम, माणिक जैसे भाग्य बदल देने वाले पत्थर सब छुपे रहते हैं, सब मिट्टी के अंदर। जंगल के अंदर चलता रहता है कैंप। लाल-सलाम। लाल-सलाम। सबको देख कर जैसे कि नहीं देख रहा हो, और जैसे कि शर्म के मारे, पक कर लाल हो रहे थे जंगली बेर।
सांझ झटपट ढले जा रही थी। गांव झटपट निर्जन होता जा रहा था। झटपट कदम बढ़ाते हुये आ रहे थे हाथियों के झुण्ड, गांव के खेत-खलिहानों में। जिनके थे, उनका सीना काँप उठता था और जिनके नहीं थे, उन्हें किस चीज का डर ?
सतनामी बस्ती में भूख घूम-घूमकर दस्तक दे रही थी दरवाजे-दरवाजे पर। पौष और बारिश के महीने, सब बराबर। कभी गाय की हड्डियाँ, तो कभी रत्नों के पत्थर।
सरकारी गाड़ियाँ, सरकारी आदमी सब अपनी सुविधानुसार घूमते रहते हैं गांव में। और भूख के मारे बाहर बैठे निर्बल बूढ़ा-बूढ़ियों से जन-गणना का हिसाब लेते है। गांव का रास्ता चोरी हो जाता है। चोरी हो जाते हैं, गांव के स्कूल, गांव के कुएँ, और बीपीएल चावल। चोरी हो जाते हैं गाव के युवक, गांव की युवतियाँ। गायब होते होते समाप्त हो जाते हैं। फिर भी सरकारी लोग आम की गुठलियों से बना माँड को बदनाम करना नहीं भूलते। सलप रस के हानिकारक गुणों के बारे में समझाते हैं। बच्चों को नहीं बेचनेकी सलाह देते हैं। मलेरिया के टीका-सुई बाँटते हैं, गर्भ-निरोध का पाठ पढ़ाते हैं, और आखिर में पोषक खाना खाने का उपदेश देते हैं।
एक के बाद एक उत्सव लगा रहता है गांव में। घर में भले ही खाने के लिये ना हो, लेकिन ठाट-बाट लेकर आती है नुआखाई। माँ सुरेश्वरी के पास भोग लगता है, महुआ और भुलिया के पत्तों से। कुछ घंटे के लिये भूख को झाडु मार कर भगानी पड़ती है। कुछ घंटे बाद गरीब के घर में, फिर भूख ब्याज सहित हाजिर हो जाती है। गर्त हो जाता है किसानों का बीेड़ा, फसलों मे लगकर तरह-तरह का कीड़ा। धान-गुच्छों की मजबूती की कामना कर ओझा पूजा-पाठ करता हैं। अकाल, अकाल, किसानों का हो जाता है काल। बेटा दूज से भाई दूज तक केवल आशा और निराशा के खेल में बीत जाता है पूरा समय। बंधुआ मजदूरी में गये हुये भाइयों के लिये बहिनें उपवास रखती है। उस साल भी बहिन का भाई गांव नहीं लौटा। उसका उपवास-व्रत व्यर्थ हो जाता है।
हेमंत ऋतु का पदार्पण हो गया था गांव में। मगसर में अभी कुछ दिन बाकी थे। कटी हुई फसलों से धान निकालने में कुछ दिन और बाकी थे। कुछ दिन बाकी थे लक्ष्मी माँ का आहवान करने में। सपने देखने को कई दिन बाकी थे। कई दिन बाकी थे सपने टूटने में।
गाँव की युवतियाँ बकरियां हाँकने जाती थी, तो कभी-कभी बकरियों के बदले खुद गुम हो जाती थी! पोपले मुंह वाले बुजुर्ग लोग अपनी आवाज धीमी हो जाने से पहले, अपने अच्छे दिनों के बारे में बोलना नहीं भूलते थे। सब चर्चाओं में सबसे ऊपर थी वह, जब पतले नली जैसे पैर वाले, ढोल जैसे पेट दिखाते-घुमते हुये नंगे बच्चों की, जो इमानुअल साहिब, पीटर साहब, या तो गाएस साहब की जीप के पीछे-पीछे भागते रहते थे।
सतनामी बस्ती के लोग सोच में पड़ जाते हैं। हर साल धांगडा अपने पैतृक आवास छोड़ रहे हैं, गाय कौन उठायेगा ? बुजुर्ग अपने पीली आंखों से ऊपर देखकर अदृश्य को कुछ पूछते-पूछते अपने विरासत में मिले पेशे को अब संकट में आता देख सोचते रहते हैं।
फिर भी आस-पास के गांवों में गायें मरती है। सतनामी बस्ती में खबर पहुँचती है। नहीं, नहीं होकर मुश्किल से दो चार धाँगड़ा निकलते हैं फुल पैण्ट पहनकर, गमछा बांधकर, कलंदर किसान के दुकान से दारु पीकर। नहीं, नहीं, होकर, फिर भी जीते रहते हैं वे लोग। नहीं, नहीं, होकर जिंदगी ऐसे ही चलती चली जाती है।

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