३
३
जैसे बादल चारों तरफ से आकाश में घुमड़-घुमड़कर घिरते जाते हैं, वैसे ही अंदरूनी हिस्सों से अजीब-सा दर्द घिरता जा रहा था अंतरा के शरीर
में। पाँवों की पिण्डलीयों में दर्द मानों कि चिपक-सा गया हो। पांव उठाते समय ऐसा
लग रहा था मानो पहाड़ उठा रहा हो। ऐसे ही उसके पाँव कमजोर थे। कई दिनों से वह लंगड़ा
कर चल रहा था। उपर से, बुखार ने उसे और कमजोर कर दिया था। रास्ता
बचा था केवल आधा कोस, फिर भी चलने की जरा भी इच्छा नहीं थी
उसकी। शाम ढ़ल चुकी थी। सियारों के झुण्ड के झुण्ड अपने बिलों से बाहर निकल कर ‘हुक्के हों’ की आवाज देना शुरु कर दिये। और थोड़ी ही
दूर पर थी गांव की एक श्मशान घाट। उसके पीछे थी उनकी बस्ती। गांव से जरा हटकर, अलग-थलग बसी हुई थी उसकी बस्ती।
एक पल के लिये अंतरा को आराम करने की इच्छा हो रही थी। अगर बैठ गया, तो रात हो जायेगी। एकबार बैठा,
तो फिर
उठने का मन नहीं होगा। फिर आगे जाने के लिये उसे नयी हिम्मत जुटानी होगी। उसको लग
रहा था कि कहीं प्राण न निकल जायें। प्यास के मारे गला सूखा जा रहा था। आँखे जल
रही थी। ठंड से शरीर काँप रहा था। अंतरा को ऐसा लगा कि यह सब उसके अपने कर्मों का
फल है। हर महीने उसे बुखार आता है। सूद-मूल सहित शरीर से बची-खुची ताकत व उम्र
खींच ले जाता है। पहले तो ऐसा कभी नहीं हो रहा था ?
जिस दिन
से उसने पाप किया, मानों उसी दिन से यह बुखार पकड़ा है कि
छूटता ही नहीं। अंतरा किसी को कुछ बोलता नहीं,
पर उसे
मालूम है कि यह उसके पाप की कमाई है।
हरबार सरसी धतूरा-जड़ के साथ कुछ जड़ी- बूटी मिलाकर पिला देती थी अंतरा को
बुखार आने पर। कड़वी दवा पीते समय उल्टी की उबकियां आने लगती थी। कभी-कभी तो उसे
उल्टी भी हो जाती थी। दस-पन्द्रह दिन तक अंतरा के शरीर में बुखार घर कर जाता था, फिर अपने आप छूट जाता था।
सरसी कहती थी “चलो,
उदंती
के उस किनारे, डाक्टर के पास चलते हैं, दवा-दारु के लिये। दवा- सुई लगने से तुरन्त ठीक हो जाओगे।”
लेकिन सुई की डर से अंतरा हमेशा आनाकानी करता रहता था जाने के लिये। सरसी
उसको समझाती। लेकिन अंतरा टस से मस नहीं होता। समझा-समझाकर थक जाने के बाद, सरसी मुंह पर अपना कपड़ा ढाँप कर सिसक-सिसककर रोती। रोते-रोते अपनी किस्मत
को कोसती। “चार-चार बच्चों को जन्म देने के बाद भी, मैं बांझ जैसी यहाँ बैठी हुई हूँ । एक-एक कर सब मुझे छोड़कर चले गये। जब मैं
मर जाऊँगी, तब तुझे पता चलेगा ? एक बूंद पानी देने के
लिये भी
कोई नहीं होगा। तब मुझे याद करना।” रोते- बिलखते कहने लगी सरसी “मेरे सभी लाड़लों, कहाँ चले गये ? कहाँ गायब हो गये ? मैं अभी तक क्यों जिन्दा हूँ ? मुझे मौत क्यों नहीं आ गयी ?”
भरे
हृदय से फूट- फूटकर वह रो पड़ी।
उसकी रोने की आवाज सुनकर रास्ते में चलते हुए लोग एक पल के लिये रुक जाते
थे। अंतरा चिल्ला कर कहता “चुप हो जा, रोना बंद कर। एक ही बात कितनी बार दुहराती रहेगी। जो हमारी किस्मत में है, वही होगा। बता तो सही, इस दुनिया में कौन किसका है ? न मैं तेरा हूँ, न तू मेरी है। यह सब मायाजाल है। समझी, कलेक्टर की माँ। माया में ही सारा संसार चल रहा है। कवि कहता है-
“राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट
अंत काल पछताओगे, प्राण जायेंगे छूट।”
बुखार से पीड़ित होते हुये भी,
राग से
कभी-कभी आधा एक पंक्ति सरसी को सुनाता। आश्रम से सिखा हुआ दर्शन, कुछ सरसी को सिखाने की कोशिश करता।
रोना बंद कर सरसी गुस्से से उठ जाती। उसकी गुस्साई चाल देखने से आग-बबूला
हो उठता अंतरा। पीछे से भागता हुआ आकर उसकी पीठ पर जोर से एक मुक्का जड़ देता वह।
“ राँड कहीं की ! कितना पैसा रखी है ? जो डाक्टर के पास जाने की बातें करती है। डाक्टर, क्या तेरा पति है, जो मुफ्त में दवा-दारु करेगा ?”
ऐसा ही कभी रोना, तो कभी हँसना। कभी झगड़ा, तो कभी निराशा के साथ जीवन बिताते थे अंतरा व सरसी। बुखार हर महीने आता
रहता था पारापारी, फिर अपने आप छूट जाता। जाते समय शरीर
को और ज्यादा कमजोर कर जाता।
अंतरा का मुंह सूख कर पिचक-सा जा रहा था। वह घर न जाकर, एक लालटेन की रोशनी की तरफ चलते चला जा रहा था। आज उसके हाथ में कुछ नगद
रोकड़ रूपया था। किसिंडा जाकर रहमन मियां के गोदाम में हड्डी ढोकर कमाया था। आज
उसको सरसी के सामने हाथ फैलाना नहीं पड़ेगा। यह औरत भी कुछ कम नहीं है। पैसा के
बारे बात की, नहीं कि,
इधर-उधर
की बकवास शुरु कर देगी। कभी बक्सा के नीचे,
तो कभी
हांडी के पीछे छुपाती फिरती है। पैसा मिला तो मिला,
नहीं तो
नहीं। इन औरतों का विश्वास नहीं करना चाहिये। ब्रहृा, विष्णु, महेश्वर भी इनके अंदर की बातों को समझ
नहीं पाये।
अंतरा ने एक बार हाथ घुमाया,
अपनी
धोती की खोंसे पर। पता नहीं क्यों उसे अजब-सी फूर्ति लगने लगी थी, पैसों के ऊपर हाथ लगते ही ? दोनों पांव से लंगड़ाते हुये पहुंच गया
वह अपने बस्ती में। घर की तरफ नजर भी नहीं डाली। बढ़ता गया कलंदर किसान की दुकान की
तरफ। वह कलंदर की दुकान ही नहीं, उसके प्राण वहां पर लटके हुये हो जैसे।
वहाँ नहीं पहुंचा तो उसके प्राण निकल जायेंगे। अजीब-सी बैचेनी उसे खींचकर ले जा
रही थी। कुछ ही कदम की दूरी बाकी है। उसके बाद उसकी जीभ भीगेगी। दुकान के बाहर से
कलंदर को आवाज दी। बाहर लकड़ी की बेंच के उपर फोरेस्ट-गार्ड़ बैठा हुआ था। अंतरा
उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता था। उसको देखते अंतरा के सिर पर भूत सवार हो जाता
था। “ये साला... यहाँ क्यों बैठा है ? हरामजादा, मरता क्यों नहीं है ?”
“एक बीड़ी और माचिस की डिब्बी फेंक तो
कलंदर।”
“तू लाटसाब है क्या रे ! जा हट, बीड़ी-फीड़ी कुछ भी नहीं है।”
“मुफ्त में दे रहा है क्या ? जो इतना गुस्सा हो रहा है।”
धोती के खोंसे में से निकालकर गर्व के साथ अपनी पूँजी को दिखा रहा था अंतरा।
: “पहले का बाकी, आज चुकता कर देगा तो ?”
अंतरा कुछ नहीं बोल पाया। पैसों से उसको भारी मोह हो गया था। कलंदर बोला “दे दे, पैसा निकाल।”
अंतरा ने अपने खोंसे में से दस रुपये का एक नोट निकाला।
“ले,
बीड़ी दे
और दारु दे तो” बेटा कलंदर से बीड़ी पाकर अंतरा ने दम मारा।
नाक, मुंह से धुंआ छोड़ते हुये बोला “एक बोतल दारु भी दे।”
“क्यों बे, आज चोरी डकैती कर कुछ कमा लिया है क्या ?”
फोरेस्ट-गार्ड
ने ही-ही हँसते हुए पूछा।
“इस गांव में क्या चोर, डकैतों की कमी है, जो मैं चोरी करने जाऊँगा ? भद्र चोर तो यहाँ भरे पड़े हैं,
हो!” यह तीर वह फोरेस्ट-गार्ड की तरफ देखकर मारा था। इतना देर तक फोरेस्ट-गार्ड
बेंच के उपर बैठ तली हुई मछलियाँ के साथ दारु खींच रहा था। अंतरा की बात सुन मुंह
उठाकर उसकी तरफ देखने लगा।
“साले चमार! बहुत बड़ी-बड़ी बातें बोलना
सीख गया, बे।”
“मुझको चोर डकैत बोलेगा तो नहीं बोलूंगा
क्या ? मारेगा मुझको तो, और बोलूंगा, सबके सामने बोलूंगा।”
“साला,
भिखमंगा, भिखारी। गाय का मांस खाने वाले चांडाल,
क्या
बोला रे, मेरे को ?”
अंतरा को मारने के लिये फोरेस्ट-गार्ड बेंच से कूदकर आ रहा था, अपने आप को संभाल नहीं पाया,
गिरते-गिरते
बेंच के ऊपर धड़ाम से बैठ गया।
कलंदर किसान के लिये यह दुकानदारी का समय था। वह नहीं चाहता था कि इस समय
पर कोई भी झमेला हो। वह भी फोरेस्ट-गार्ड को पसंद नहीं करता था। उस पाजी की असलियत
उसे ठीक से मालूम थी। फिर भी लोहे को चबाकर
अपने दांतों में दर्द क्यों बढ़ायेगा ?
अंतरा
को धमकाते हुये बोला “जा,
जा, घर भाग। बेकार में यहाँ झमेला मत कर।”
“मैं क्यों जाऊँ? नकद देकर हक के साथ पीने आया हूँ । यह क्या उसके बाप की दुकान है ?”
फोरेस्ट-गार्ड बार-बार उठने की कोशिश कर रहा था, पर उठ नहीं पा रहा था। उस समय वह गले तक उंडेल चुका था। पता नहीं, होश होता तो अंतरा को शायद पीट-पीटकर,
मार-मारकर
चमड़ा उधेड़ देता। धीरे-धीरे फोरेस्ट-गार्ड का अधमरा शरीर टेबल के उपर लुढ़क गया। यह
नमूना भी कुछ कम नहीं है। यही तो जंगल का सबसे बड़ा दुश्मन है। जंगल को तो बेच कर
खा गया। साथ में, गांव भर के लड़के-लड़कियों को भी बेचकर
गंजाम में अपनी हवेली बना दी।
नशे में धुत्त था धीमरा। बोलने लगा “इसके मुंह में तो मूतना चाहिये, साले के।”
कलंदर झूठ-मूठ का गुस्सा दिखाते हुये बोला “साले लोग, ऐसा बकर-बकर करते रहोगे, तो भागो यहाँ से। मैं दुकान बंद
करुंगा।” बोलते-बोलते घुस गया अपनी छोटी सी
गुमटी के अंदर।
“क्यों,
जायेंगे
हम लोग ? कब से जीभ सूखी-सूखी लग रही है? कलंदर, दारु नहीं है तो, महुली दारु तो दे दे।”
कलंदर, चमार और दूसरे अछूतों के लिये अलग
गिलास रखा करता था। आजकल आठ-दस कोकाकोला की बोतलों भी रखने लगा था। चमारों के लिए
अलग बोतल रखता था। आधे बोतल से थोड़ा ज्यादा दारु लाकर कलंदर ने नीचे जमीन पर रख
दिया। “ए लंगड़ा ! तेरा भी पैसा काट दिया, हाँ”
“थोड़े-से चने नहीं दोगे क्या ?” संकुचित होते हुये अंतरा बोला।
“चना क्या फोखट में मिलता है ?”
“फोरेस्ट-गार्ड को तो भूजा हुआ मछली दे
रहा है, और हम लोगों के लिये मुट्ठी भर चना भी
नहीं ?”
“ऐ,
बोल रहा
हूँ, मेरे साथ किचर-किचर मत कर। जा, तू यहाँ से ! तेरे रूपये के लिये मैं क्या मर रहा हूँ ?”
कलंदर की नजर थी फोरेस्ट-गार्ड की जेब की तरफ। मुट्ठी भर रूपये आधा बाहर
निकले हुये थे। अंतरा को यह बात ठीक से मालुम थी कि कलंदर चिल्लाने से भी मुट्ठी
भर चने जरुर देगा। अधिक से अधिक एक रूपया ज्यादा लेगा। सच्ची में अंदर जाकर मुट्ठी
भर चना कलंदर निकालता है, पत्ते के दोने में। और फेंक देता है अंतरा
की अंजलि में, और बोलता है
“पहले दो रूपया निकाल, चल”
इतने समय तक, अंतरा देशी दारु का स्वाद ले चुका था।
दो चना मुंह में डालकर दो-घूंट दारु और उंडेल दिया था।
”ए कलंदर ! एक गिलास दारु और दे।”
कलंदर दुकानदारी के तौर-तरीके अच्छी
तरह
जानता था। अंतरा के खोंसे में मुट्ठी भर पैसा देख चुका था। धीरे-धीरे वह पूरा पैसा
खींच लेगा, अंतरा को इस बात का पता भी नहीं चलेगा।
कलंदर बोला “हो गया,
हो गया, और मत पी, तू अभी घर जा। तेरी घर वाली तेरा
इंतजार करती होगी, यार।”
“बुखार से काफी कष्ट पा चुका हूँ रे
कलंदर। बाबू , तू दे तो, मेरी बात सुन, शरीर में से पीड़ा और थकान दूर हो जाने
दे।”
कलंदर दूसरे पियक्कड़ों को लेकर व्यस्त था। सभी तो दूसरे लोक के निवासी थे, पीने के बाद। इन सभी निवासियों को,
कठ-पुतलियों
की भाँति नचा रहा था कलंदर, विश्वनिंयता बनकर। इसी बीच में आ जाते
हैं और दो तीन पियक्कड़, कलंदर की गमटी में। वह नये ग्राहकों को
अपने वश में करने के लिये लगा हुआ था। तुरंत कलंदर एक गिलास महुली लाकर, उसके गिलास में डाल दिया। इतने समय तक,
अंतरा
से बीस रूपया खींच चुका था कलंदर। फिर भी,
और दस
रूपया माँगने लगा। चना खाया, बीड़ी पी,
दारु
पिया। ऊपर से महुली भी दिया बिना कुछ बोले अंतरा ने पांच का एक नोट कलंदर की तरफ
बढ़ा दिया। महुली की एक घूँट मुंह में गया कि नहीं उसे अपनी पुरानी दर्द भरी यादें
ताजा हो गयी। चिल्लाकर बोलने लगा -
“मेरा डाक्टर कहां गया रे तू ?”
धीमरा नशे में धुत्त था, बोला-
“क्या रे अंतरा, सपना देख रहा है क्या ?”
“नहीं,
नहीं
भाई। महुली को देखने से मुझे डाक्टर की याद आ जाती है। वह हट्ठा-कट्ठा जवान कहाँ
गायब हो गया ? ऐसा लगता है कि गंजाम का गतेई साहु और
यह फोरेस्ट-गार्ड, दोनों मिले हुये हैं। पूरे गांव भर के
जवान लड़कों को हाँक-हाँककर भगा ले गये हैं। गांव भर ढूंढ लेने पर भी, एक जवान लड़का और नहीं मिलेगा। पेशियाँ और पिंडलियाँ कितनी बड़ी-बड़ी व सुघड़
हो चुकी थी मेरे डाक्टर की। तीनों बेटों में से सबसे सुंदर, व भरापूरा शरीर का था मेरा डाक्टर।”
धीमरा
ने उठते-उठते हामी भरी और कहा “तुम ठीक बोल रहे हो, अंतरा।” धूं-धूं कर दुख की ज्वाला से अंतरा का
दिल जल रहा था। कौनसे प्रदेश में होगा ?
कितना
कष्ट पाता होगा ? क्या खाता होगा ? क्या पीता होगा ? शादी कर ली होगी कि नहीं, पता नहीं ?
अठारह साल का हो गया था वह लड़का। कलेक्टर की भाँति भोलाभाला नहीं था। बहुत
ही फुर्त्तीला था। खाना खायें या नहीं,
कोई फरक
नहीं पड़ता। घोड़े के बच्चे की तरह इधर-उधर दौड़ते रहता था। गया था उस साल वह, टेलिफोन लाइन बिछाने के लिये,
मिट्टी
खोदने का काम करने। तेज-तर्रार लड़का,
बाप
जैसा हड्डी ढोने वाला नीच काम क्यों करता ?
बहुत ही
समझदार मेहनती लड़का था वह। कभी-कभी अपनी किस्मत को कोसता रहता था अंतरा। सोचा था, बड़ा वाला लड़का कलेक्टर बनेगा,
पर हुआ
क्या ? मुंह पर कालिख पुतवा दी, लड़की को भगाकर ले गया था वह। अंतरा गांव भर में मुंह दिखलाने लायक नहीं
रहा। इतने समय तक महुली का गिलास खत्म हो चुका था। कलंदर को पूछने लगा “और थोड़ा, दोगे क्या ?”
कलंदर था कि न हिला, न डुला। अंतरा ने बचे हुये एक रूपये के
सिक्के को फेंककर बोला “दे रे और थोड़ा, दे, दे।”
हँसते हुए कलंदर कहने लगा “आज तो चमार का भोज हो गया है। मै
सतनामी, कि तू सतनामी ? शास्त्र पुराण के बारे में कुछ जानता भी है ?”
अंतरा
खिसिया कर बोला “साला,
दारु
बेच बेच कर दिन बिता रहा है और मेरे को शास्त्रों के बारे में पूछ रहा है। देख, सुन -
“संगी साथी चल गये सारे, कोई न निभियो साथ।
नानक इस विपद में टेक एक ही रघुनाथ ।।”
“बस,
हो गया।
मैं समझ गया। तुम तो ठहरे महाज्ञानी पुरुष। अब,
पहले
मेरा बकाया चुकता कर, फिर शास्त्र-पुराण सुनाते रहना।”
अंतरा भूल गया था कि कलंदर उसको पाँच रूपया वापिस करेगा। उसको हिसाब किताब
नहीं आता था।
ऐसी हालत में, अभी हिसाब करता भी कैसे ? उसके तो थी मन में जलन, शरीर में भी जलन। उँची आवाज में भागवत
का पद्य गाने लगा-
“जब करम आपणो फल देने को आवें, उसका हेतु अपने आप खड़ा हो जावें,
बड़े-बड़े अकलमंदो की बुद्धि को फिरावें,
पर-वश
माया के चक्कर में भरमावे।
नहीं समझ पड़े, करमण की गति अपारा, श्री कृष्ण कहे सुन अर्जुन वचन हमारा।”
इतने समय तक कलंदर, पियक्कड़ों से जितना हो सकता था, लूट रहा था। केवल फोरेस्ट गार्ड ही बिना पैसा दिये पीता था। लाटसाहब जैसे
आता था, मुर्गा,
मछली
आदि की फरमाइश करता था और गले तक पी जाता था। लेकिन नशे में धुत्त होकर होश गँवा
बैठता था, तभी कलंदर धीरे से जेब में से सारे के
सारे पैसे निकाल लेता था। उसका सूद समेत ब्याज भी वसूल करलेता था। ‘चोरी का पैसा मोरी में’ चला जाता है। दुकान बंद करते समय
फोरेस्ट-गार्ड को उठाते हुये बाहर ले जाता था तथा बरामदे में सुला देता था। जान
बुझकर कलंदर पांच या दस का एक दो नोट रास्ते में गिराकर आ जाता था ताकि होश आने पर
फोरेस्ट-गार्ड नीचे गिरे हुये नोट को देख कलंदर पर शक भी नहीं करेगा।
पर पता नहीं क्यों, अब की बार, अंतरा का गाना उसके सीने में चुभ गया। जैसे कि यह चमार उसकी अंदर की हर बात
को जानता हो । अनपढ़ होने के बाद भी,
ज्ञान
की बातें अच्छी तरह से मालूम है। जो भी हो,
बेटा
उसका इमानुअल साहिब के साथ रहकर पढ़ाई किया था,
देश-विदेश
घूमा भी है। बेटे की संगत से कुछ तो ज्ञान जरूर पाया होगा।
बेटा पढ़ाई तो किया, लेकिन न बाप को पूछा, न माँ को और न ही अंतरा की माली हालात में कोई सुधार हुआ। वह तो बेईजू शबर
की बेटी को भगाकर ले गया और जाकर रायपुर या भोपाल में बस गया। तब से अब तक उसकी
कोई खबर नहीं है ? अंतरा को देखने से कलंदर के मन में दया
आती है। बेचारे का बेटा, बेईजू शबर की बेटी को, जब भगाकर ले गया था तो दोनों जातियों मे मारकाट की नौबत आ गयी थी। अपने घर
में चिटकनी डालकर, भोर-भोर में, अपने बाल-बच्चों समेत अंतरा वहां से खिसक गया था। कोई बोला, जंगल में छुपा है। तो कोई बोला चला गया है काँटाभाजी, अपने साले के पास। बेटे के गलत काम के कारण ही बाप को इधर-उधर भटकना पड़ा।
कोई बोला, रहमन मियां के गोदाम में, चमड़ा धोने, सूखाने और पाँलिस करने का काम कर रहा
है बैठे-बैठे। तो किसी ने कहा, कि अंतरा को भोपाल में देखा था, नया धोती, कुरता पहनकर वह बाजार में घूम रहा था
अपने बेटे के साथ।
पर कोई भी अपने बाप-दादों की जमीन-जायदाद छोड़कर परदेश में कितना दिन टिक
सकता है ? एक दिन शाम के समय अंतरा अपने परिवार
वालों के साथ गांव में वापिस लौटा। बुझी हुई आग,
हुत-हुतकर
फिर से जलने लगी। अंतरा के लिये दुःख जताने वाले लोग अड़ बैठे और उसे अपनी जाति से
बाहर निकालने की बात करने लगे। बेईजू शबर तो भात-दाल, कद्दू की सब्जी खिलाकर अपनी जाति में शामिल हो चुका था। जाति भाईयों, पास-पडौस गांव के ओझा तथा बुजुर्ग लोगों को दारु भी पिलाया था उसके लिये। लेकिन अंतरा के घर में चार प्राणी थे। उनको पालेगा या भोजी-भात
खिलायेगा।
सवेरे-सवेरे बस्ती वालों की बैठक बुलायी गयी। आखिर में पन्द्रह किलो चावल
और दो किलो दाल देने के लिये अंतरा राजी हुआ। सरसी ने बाप के घर से मिले हुये
कमरबंध को ‘शा’
के पास
गिरवी रख दिया। पास-पडौस वाले उनसे जलन करते थे,
इसलिये
सरसी ने उनको गाली भी दी। बेटी के लिए रखी हुई थी बेचारी एक मात्र चांदी की
कमरबंध। शा के पास से क्या छुड़ाना संभव होगा ?
सुख और
सपने सब चूल्हे में जाये, चूर-चूर हो जाये। लेकिन जीना तो होगा
ही।
ये जीना भी क्या जीना है ? जितने मुंह, उतनी बातें। बस्ती में किस-किस का मुंह रोकोगे ?
“तू तो गांव छोड़कर जा चुका था, फिर क्यों वापिस आ गया ?”
“तेरे बेटे ने तुझे घर से बाहर निकाल
दिया, क्या ?”
“क्या,
रहमन
मियां तुझे दो वक्त की रोटी खिला नहीं पाया ?”
“जाते समय तो चारों जनों को लेकर गया था, वापिस आते समय तीन कैसे हो गये ?
एक को
मारकर कहीं फेंक तो नहीं दिया ?”
“साले के पास रहकर शहर में काम-धंधा
करके पेट पालना चाहिये था। इस बस्ती में फिर क्यों वापिस आ गया ?”
ऐसा क्या था उस बस्ती में। छप्पर वाले दो कमरों का घर, जिसके छप्पर चार साल में एक बार भी वह बदल नहीं पाता था। जमीन-जायदाद का तो
सवाल ही नहीं, फिर भी तो अपने गांव-घर की बार-बार याद
सताती थी। रहमन मियां के यहां रहकर उसे लग रहा था कि वह पेड़ से गिरे हुये पत्ते के
समान हो।
लोगों की बातों का जवाब देने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं था । ऐसा भी
कोई-कोई कहने लगे कि तीनों बच्चों को कहीं छोड़कर रहमन मियां के गोदाम में सरसी छुप
कर गयी थी। अंतरा के कान में अभी तक यह बात नहीं पड़ी थी। रूपया-पैसा लेकर वह लौट
आयी थी रहमन मियां के घर से। और उससे भात-दाल खिलायी थी पास-पडौस को। कोई बोला, सब झूठ है। रहमन के पास से रूपया नहीं लायी है, रहमन तो इतना कंजूस है कि मुफ्त में अपने शरीर का मैल भी नहीं देता है। तो
क्या वह रूपया देगा ? वह तो गयी थी ‘भूतापाड़ा’, जहां मुर्शिर्दाबादी पठान सब डेरा
जमाये हुये थे। वहीं पर तो, परमानन्द ने उसको देख लिया था।
क्या हुआ ? पता नहीं। इधर-उधर की बातों से कुछ दिन
तक, चुप्पी सांध लिया था अंतरा ने। बात-बात
पर सरसी पर चिढ़ने लगता था। ठीक से खाना-पीना भी नहीं करता था। कुछ दिन बाद अपनी
औरत और बच्चों को अकेले छोड़कर, गांव ही छोड़कर चल दिया था।
मंझला बेटा, डाक्टर,
अंतरा
का सबसे चहेता था। बड़े काम का लड़का था। सचमुच बाप के घर छोड़ने के बाद, मंझले बेटे ने ही संभाला था घर को। इधर-उधर कूली मजदूरी कर माँ के लिये
चावल दाल लाता था। सरसी सोचती थी ऐसे समय,
अंतरा
होता तो देखता कि उसका बेटा घर संभालने के लायक हो गया था। अंतरा मर्द था, इसलिये लोगों की बातें सहन नहीं कर पाया। और घर छोड़ दिया। पर सरसी कहाँ
जाती ? रहमन के गोदाम की तरफ सरसी कभी नहीं
गयी। भले ही, बेटे को काम न मिला हो, तो वह भूखे ही सो गयी।
अंतरा साल डेढ़-साल के बाद घर लौटा। गांव वाले लोग सोच रहे थे कि या तो वह
कहीं खो गया था या कहीं मर गया। अगर वह जिंदा होता तो क्या घर नहीं लौटता, अपने बाल-बच्चों को देखन के लिये ?
कोई बोल
रहा था कि वह रेल-गाड़ी के नीचे आकर कट कर मर गया। डाक्टर बहुत ही खुश मिजाज स्वभाव
का था। जो भी वह कमाता था, एक हिस्सा अपने लिये रखता था, बाकी तीन हिस्से माँ को दे देता था। उसी एक हिस्से में वह खुद के लिये तेल, साबुन, सफल गुट्खा व लाल-पीले रंग का टी-शर्ट
खरीदता था। वह हर-रोज दारु नहीं पीता था। कभी-कभार अपने दोस्तों के साथ मन होने से
पी लेता था।
अंतरा जब घर लौटा, तो उसने देखा कि उसके बगैर भी उसका घर
चल रहा था। डाक्टर ने संभाल ली थी घर की हालत। यही वह बेटा था, जिसने उसकी इज्जत बचायी थी। बड़े बेटे ने तो बदनाम कर कहीं का भी नहीं छोड़ा
था।
अब अंतरा ढूँढने लगता था अपनी जवानी,
डाक्टर
के भीतर। पर उसे इस बात का मलाल रह गया था कि किसी भी बेटे ने अपने पुश्तैनी-धंधे
को अपनाया नहीं था।
चमड़ा उतारना, यहाँ तक कि चमड़ा घिसना भी नहीं जानते
थे। ढोल बनाना भी उन्हें नहीं आता था। हरि
दास गुंसाई बाबा का कहना था संसार को अच्छी तरह से चलाने के लिये सबको
अलग-अलग काम करने चाहिये। सबके अलग-अलग काम करने से ही संसार ठीक से चल रहा है। सब
कोई अगर पुजारी का काम करेंगे, तो सड़े-गले मुर्दों को उठाने का काम
कौन करेगा ? काम तो काम ही है। इसमें क्या अच्छा और
क्या बुरा ? मालपुआ का स्वाद जीभ के लिये तो मीठा
होता है, पर जब यह पेट में जाता है तो मल बन
जाता है। कोई चीज इस शरीर के लिये मधु है,
तो वही
चीज इसी शरीर में मल भी बनती है।
“सो गया क्या अंतरा ? साला, जा भाग इधर से ? मैं अब दुकान बंद करुँगा। मेरे लालटेन में अब किरोसीन खत्म हो रहा है।”
अंतरा नींद में झोंके लगा रहा था। बोला -
“जा रहा हूँ, मेरे बाप जा रहा हूँ। उठने की कोशिश करने के बाद भी उठ नहीं पा रहा था।
जितनी बार वह उठने की कोशिश करता था,
उतनी ही
बार वह गिर जाता था।
“अरे जा,
भाग, भाग ! मैं क्या तेरे लिये यहाँ बैठा रहूँगा ।”बड़े कष्ट के साथ खड़ा हुआ अंतरा। वह जायेगा,
पर कहाँ
जायेगा ? लेफ्रिखोल ? सिनापाली ? कांटाभाजी ? भोपाल ? आंध्रप्रदेश ? रायपुर ? कहाँ जायेगा वह ? धरमगढ़ ? पीने के बाद उसे अपना शरीर हल्का-हल्का
सा अनुभव हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे कि वह पहाड़ के उपर चढ़ रहा हो। पर जब
उसने अपने पांव आगे बढ़ाये तो ऐसा लगा कि वह कहीं लुढ़क न जायें। याद आ गया उसे वह
दिन, जब वह एक अलग आदमी बन कर लौटा था।
आधा-बाबा बनकर बात-बात में झलकते थे भजन,
कीर्तन
व भागवत के गीतों के बोल उसके मुख से। गले में डाली हुई थी तुलसी की माला और धारण
किया हुआ था शरीर पर भगवा-वस्त्र। देखने से कोई भी नहीं बोलेगा कि वह चमार सतनामी
है ?
सरसी देखकर चकित रह गयी। क्या कर रहे थे ?
कहाँ थे
इतने दिन ? घर-बार की याद नहीं आयी एक बार भी ? हम क्या खाते होंगे ? कैसे रहते होंगे ? एक बार भी यह विचार दिमाग में नहीं आया ?
यह सब
सोच रही थी सरसी। पर मुह से कुछ भी आवाज नहीं निकली। मैं औरत जात, तुम्हें कहाँ ढूंढने जाती? आस-पडौस की बातें सुनकर तुम घर छोड़कर
भाग गये थे, परन्तु तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने
क्या-क्या खरी-खोटी मुझे नहीं सुनाई होगी ?
कभी
कल्पना भी नहीं की होगी । लोग तो यहाँ तक बोल रहे थे कि रहमन मियां ने मुझे रखैल
बना रखा है, इसलिये तुम मुझे छोड़कर भाग गये थे।
“ देखो,
देखो, इस बच्चे को, जिसने तुम्हारे संसार को संभाल कर रखा
है। मिट्टी खोद-खोदकर, पत्थर काट-काटकर इस बच्चे ने अपनी क्या
ह ालत बना रखी है ?”
तब तक बाप-बेटे ने एक दूसरे के साथ कुछ भी बात नहीं की थी। किसी भी प्रकार
की कोई शिकायत न थी, न ही किसी भी प्रकार का पश्चाताप, न था किसी भी प्रकार का कोई संकोच। मगर कोई किसी के साथ आँख मिलाने की
हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। घर के बोझ ने बेटे को उम्रदराज बना दिया था। घर के
बोझ से मुक्त होने से बाप, बेटे की तरह किशोर बन गया था। लड़के की
मासपेशियों को देखने से अंतरा को लग रहा था,
वह बूढ़ा
हो गया। वह समझ गया था कि उसके बेटे अपने पुश्तैनी पेशा को नहीं अपना पायेंगे।
यद्यपि इस बात का उसको कोई गम न था। पर,
चमार
होकर चमड़े का काम न जानना, क्या किसी को शोभा भी देताहै ? पर डाक्टर को किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं थी अपने पिताजी से।
अंतरा को ऐसा लग रहा था मानों कि वह आकाश में उड़ रहा हो। उसके शरीर पर दो
पंख निकल आये हो। वह आकाश में चक्कर काट कर उड़ रहा था। नीचे पड़ी थी मरी हुयी गायों
के लाशों के ढ़ेर। वह झपट पड़ेगा क्या उन पर ?
सोचते-सोचते
वह नीचे की तरफ आ रहा था। नीचे आते ही उसे लगा,
कहाँ
गायब हो गयी ये सब मरी हुयी गायें ?
एक
अधमरी गाय पड़ी थी पास में। एक पांव से वह काँप रही थी. छटपटा रही थी। मुँह से झाग
निकल रहे थे। एक कौआ उसकी आँख कुरेदने की ताक में था पीठ पर बैठा हुआ। अंतरा ने
उसे उड़ाना चाहा। कौआ वहाँ से उड़कर नजदीक जमीन पर जा बैठा। गिद्ध बने, अंतरा की चोंच गाय तक नहीं पहुंच रही थी। पांव नहीं उठ पा रहे थे। कमजोरी
लग रही थी उसे । धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था। न तो वह गाय को देख पा रहा था न ही
वह अपने आप को।
Comments
Post a Comment