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परबा बाहर बैठकर अपने नाखूनों से जमीन पर लकीरें खींच रही थी। अंदर झूमरी थी अपने ग्राहक के साथ। वह उसका रोज का ग्राहक था। यह पान की दुकान वाला, हफ्ते में एक दो बार जरुर आता था। परबा को लग रहा था कि वह केवल ग्राहक ही नहीं है, वरन् उसे तो झूमरी का प्रेमी कहना उचित होगा। क्यों कि वह आदमी सिर्फ झुमरी को छोडकर किसी के पास नहीं जाता था। दोनों के बीच रूपया-पैसा का दाम-मोल भी नहीं होता था। जब जो मिलता था, वह देकर चला जाता था। कभी कम, तो कभी ज्यादा।
झूमरी के नाक-नक्श बहुत सुंदर थे। रंग गोरा, पतला शरीर, गंजाम की लड़की, पत्थर जड़ित नथ लगायी हुयी थी। उसके लंबे चेहरे पर नथ खूब सुंदर दिखाई देती थी। और फिर जब वह पान खा लेती थी तो उसके चेहरे का क्या कहना ! बहुत ही खुबसूरत दिखती थी वह। पान दुकान वाला जब भी आता था, झूमरी के लिये अवश्य दो-चार पान लाता था। उसमें से एकाध पान झूमरी, परबा को देती थी खाने के लिये। वास्तव में, वह पान बड़ा ही मीठा और सुगंधित होता था। मानों उसमें कोई पान-मसाला न मिलाकर प्रेम मिला दिया हो। उस आदमी का उधारी भी चलता था झूमरी के पास। कभी-कभी कहता था बेटे के लिये साइकिल खरीद लिया है, उसे आने-जाने की दिक्कत हो रही थी। पैसा बाद में दे दूंगा।झूमरी का भी उधार-खाता चलता था उस आदमी के पास। कभी साड़ी, तो कभी खोली का भाड़ा कम हो जाने से वह मुंह खोलकर मांग लेती थी पचास-सौ रुपया।
परबा समझ नहीं पाती थी, यह दाम्पत्य संबंध है, या दोस्ती ? नहीं, ये दाम्पत्य संबंध तो नहीं है, दोस्ती कहा जा सकता है। मगर दोस्ती है, तो पैसा देकर सोने के लिये क्यों आता है ?
एक ही खोली में रहते हुये भी वह आदमी परबा की तरफ एक बार भी नहीं देखता था। परबा के ऐसे कोई स्थायी ग्राहक नहीं थे, जिस पर सुख-दुख में भरोसा किया जा सके। उनकी बस्ती तो एक बाजार थी। जो बोलने में, चलने में, फैशन में, चेहरे की सुंदरता में, जो जितना पारंगत था, उसकी दुकान उतनी ही अच्छी चलती थी। परबा इस होड़ में रहती थी सबसे पीछे। झूमरी नहीं होती, तो शायद उसे खाना भी नसीब नहीं होता। जब किसी औरत का कोई सहारा नहीं होता है, तभी वह उस धंधे में आती है। मगर परबा इस धंधे के लायक भी नहीं थी। वह जायेगी तो कहाँ ?
झूमरी मुंह पर कुछ नहीं बोलने से भी परबा से कटी-कटी रहती थी। वह अब और परबा का बोझ उठा नहीं पायेगी। परबा को अब अपना जुगाड़ खुद कर लेना चाहिये। कितने दिनों तक, झूमरी परबा का दुगुना पैसा, खोली के भाड़े का देती रहेगी ?
झूमरी के मन में और भी असंतोष था, जब से कुंद इस बस्ती में आयी थी, तब से परबा हर रोज एकाध घंटा चली जाती थी उसके घर, अपने सुख-दुख की बात करने के लिये। कभी-कभी, समय-असमय पर, कुंद भी चली आती थी उनकी खोली को। झूमरी सोचती थी एक ही जाति, एक ही गोत्र, एक ही गांव की लड़कियाँ है इसलिये प्रेम-भाव बढ़ गया है। मगर जब इधर झूमरी राह देख रही होती, उधर परबा कुंद के घर से साग-पखाल खाकर लौटती थी। सरल-सी, भोली-सी लड़की सोचकर उसे अपने पल्लू में छुपाकर रखी थी। अब वह दूसरे की दीदी बन बैठी है, दूसरी खोली में।
झूमरी और परबा ने, अब सिर की ऊँचाई तक आधी दीवार खींच दी थी अपनी खोली में। तथा बाकी आधी को पोलिथीन से इस तरह ढ़क दिया था, जिससे वह खोली दो कमरों जैसी लग रही थी। पुरानी साड़ी काटकर एक-एक बड़ा परदा झूला दिया था सामने में। पहले-पहले परबा को बड़ा खराब लगता था, इधर की बातें उधर सुनाई देती थी और उधर की बातें इधर। शर्म से वह पानी-पानी हो जाती थी। अब तो उसकी आदत हो गयी थी। वे लोग चावल के बोरे, गेहूँ के बोरे की तरह लेटी रहती थीं। उनके न खून में कोई आग लगती, न कोई मन में। सोलह साल के लड़के से लेकर साठ साल के बूढ़े आदमी, जो अतिथि की तरह आता था, उनका परबा स्वागत करती थी। जमीन की तरह खुद को बिछा देती थी, देखो मैं अभी सर्वांगसह धरती बन गयी हूँ। मेरे शरीर पर नाचो, कूदो, खोदो, तोड़ो, जर्जर करो। मैं मुंह छुपाकर पड़ी रहूँगी। मैं कुछ भी विरोध नहीं करुँगी।
जैसे कि वह कहना चाहती थी, कब से मैं रेगिस्तान बन गयी हूँ, कब से नदियाँ लुप्त हो गयी हैं, कब से नई कोपलें निकलना भूल गये हैंै पेड़-पौधे, मेरी मिट्टी से। मैं एक रेगिस्तान, जन्महीन, आशाहीन, निर्मम, कठोर। थोडे-से बादलों की प्रतीक्षा में युग-युग स्वप्नहीन रातें, नींद रहित भोर, बिना उल्लास के रति, रुचिहीन प्रीति लेकर बैठी हूँ, जो बैठी हूँ।
कभी बारिश की रातों में झींगुरों की झीं-झीं आवाज सुनने से गांव की याद आ जाती थी। वह आँखे मूँदकर देख पाती डिबरी की रोशनी में, माँ का आधा उज्ज्वला चेहरा। चूल्हे के पास बैठे रहते थे सब लोग, थाली में नमक डाला हुआ चावल का माँड। माँ कहती थी गरम-गरम पी लो।श्रावण का महीना हो, बारिश की झड़ी लगी हो, गरम-गरम चावल के माँड में मिरच और लहुसन को मसलकर पीने में जो मजा आता है, वह किसी में नहीं है। खाने के बाद गुदड़ी को ओढ़कर बारिश की रिम-झिम संगीत को सुनती थी। खिसके हुये खप्पर से पानी गिरता था छपक-छपक। माँ घर में से एक पतली नाली काट देती थी आंगन की तरफ। छपक-छपक सुनते-सुनते उसे नींद आ जाती थी।
ऐसे ही एक श्रावण के महीने में माँ को बुखार आ गया था। बारी-बारी, दो-चार दिनों के अंतर में वह काँपने लगती थी। किसिंडा नहीं जा पाती थी। खेत-खलिहान भी नहीं जा पाती थी। चारों तरफ से बादल घिर कर, बारी-बारी से मूसलाधार बारिश ऐसे बरसने लगी, कि छोडने का नाम नहीं ले रही थी। बाप घर में बैठे-बैठे कर भाइयों को गाली दे रहा था। एक साल पहले, छोटा भाई बाप के साथ झगडा करके गाँव छोडकर भाग गया, ‘नक्सलहोने के लिये। बाप के साथ उसका कभी पटता नहीं था। बाप के मुख से धरम, करम, करम फल की बातें सुनकर उसके शरीर में आग लग जाती थी। व्यर्थ में भगवान को क्यों याद कर रहे हो ? वह कुछ देते हैं क्या ? भगवान-फगवान कुछ नहीं हैं। गांव से नुरी शा, अलेख प्रधान, चूडामणि नायक सब निकल जाने से देखोगे कि गांव का हुलिया कैसे बदल जायेगा ? बाप इन बातों को समझ नहीं पाता था। दोनों के अंदर झगड़ा होता था। वह कई दिनों के लिये घर से गायब हो जाता था। एक साल पहले जब घर छोड़ा था, तो फिर नहीं लौटा। सब कह रहे थे कि वह नक्सल में शामिल हो गया। घर में अभी थे सिर्फ तीन प्राणी। उस सावन के महीने में, मूसलाधार बारिश के दिन, वह औरत बुखार से काँप रही थी और एक लंगड़ा अपने तकदीर को कोसते-कोसते भागवत पुराण गा रहा था अपने बरामदे में बैठकर, और परबा गरम माँड तो दूर की बात, पखाल के एक कटोरे पानी के लिये तरस रही थी।
नींद टूटने से भूख। भूखे पेट में नींद। भूख से मुंह में पानी भर जाता था और सूख जाता था ! ऐसे बैठी रहती थी परबा। समय देखकर भूख चली आती थी, और फिर धीरे-धीरे चली जाती थी। मन हो रहा था डेगची, कडाई के भीतर कुछ भी ढूंढ कर खा लेने के लिये। कितनी बार ढूंढ चुकी थी। एक दाना, चावल भी घर में नहीं था।
बाप अपनी लाठी लेकर बाहर निकल गया था मूसलाधार घोर बारिश में। माँ बुखार से ठिठुर रही थी चटाई पर पड़ी-पड़ी। गिर गई थी आधी दीवार, भीग-भीगकर पानी से। सायं-सायं करती हवा घुस जा रही थी घर के अंदर। परबा के हलक सूख गये थे। और अगर आधी दीवार गिर जाती तो, सब काम तमाम। सिर छुपाने के लिये जगह नहीं मिलती। उसी आधी टूटी दीवार से सटकर, धारायें बन बनकर बह जा रहा था लाल रंग का पानी।
कुछ देर बाद बाप खाली हाथ भीगे हुये शरीर लेकर वापस आया था. परबा बोली तुम कहाँ गये थे, बा ? तुम यहाँ रुको। मैं नाला की तरफ जा रही हूँ।
इतने बारिश में ? तू मत जा बेटी।बाप ने उसको रोका था
जाने दो ना, बा। दो चार भाजी के पत्ते कहीं मिल जायेंगे। मुझे जाने दो।
इतनी मूसलाधार बारिश में जाओगी ?”
तुम फिर कैसे बाहर गये थे ?”
उसका बाप चुप हो गया था। बाहर में भले ही हो रही थी बारिश, पर पेट के अंदर तो आग जल रही थी। बाप बेचारा, आस लेकर घर में बैठा होगा, परबा जरुर कुछ जुगाड़ कर लायेगी। परबा डालियों से बने बडा टोपे को लगाकर निकल गयी थी घर से बाहर। सरसी बिल-बिलाकर कुछ बोलना चाह रही थी। पर उसके कान में सरसी की आवाज नहीं पहुंच पायी। इस घनघोर बारिश में अपने घोंसलों में से एक चिड़िया भी बाहर नहीं निकल रही थी, दानों की तलाश में लेकिन परबा निकल गयी थी। नाला में पानी भरकर सूं-सूं कर गरज रहा था। साग-भाजी कहाँ से पायेगी ? पास-पडोस वाले बोल रहे थे कि नक्सल दल जँगल में डेरा डाले हुये थे। मूसलाधार बारिश के कारण कहीं जा नहीं पा रहे थे। मित्र-भानु कह रहा था उसने तो जंगल की ओर से गोलियों की आवाजें भी सुनी थी।
परबा को लगा था कि ऐसे बुरे समय में उसका छोटा भाई ही मदद कर पायेगा। दुःखी-दरिद्रों को दुःख से उबरने के लिये ही तो वह नक्सल में शामिल हुआ था। पूरे छः दिन हो गये, पर घर में चूल्हा नहीं जला। भाई को पता चलने से, कुछ व्यवस्था नहीं कर देगा ? और कितना दूर है जो जंगल ? शायद दो कोस से भी कम ही होगा। वह अपने छोटे भाई को जरुर मिलेगी। बड़ा भाई तो भोपाल जाकर रहने लगा था। इसका चेहरा तो परबा को याद भी नहीं था। परबा ने जब होश सँभाला, तब से शायद एकाध बार वह घर आया होगा। ईसाई हो गया था,तो बस्ती वालों ने उसे बस्ती में घुसने नहीं दिया। मंझला भाई तो सब मोह-माया तोडकर रहने लगा था परदेश में। मर गया था कि जिन्दा है, पता नहीं। न कोई खबर की, और न ही कभी कोई रुपया-पैसा भेजा गांव में माँ-बाप के पास। छोटे भाई के साथ परबा का अच्छा पटता था। साथ बड़े हुये थे, खेले थे, कूदे थे। साथ भूख से तड़पे थे, साथ ही साथ माँड भी पीये थे।
बड़ी उम्मीदों के साथ परबा गयी थी उसके भाई के पास। थोडी भी परवाह नहीं की थी, जंगली जानवरों से। भूख के सामने जैसे कि सब छोटे हैं। लुईगुड़ा गांव में नक्सल, सितानी सेठ से पचास बोरा चावल उठाकर ले गये थे। वह क्या करेंगे उस चावल का ? उनके जैसे गरीब-दुखियों को ही तो बाँटेगे। पचास बोरा चावल क्या उतना जल्दी खत्म हो गया होगा ?
छोटा भाई भी कैसा इंसान है ? गांव के पास जंगल में डेरा डाला हुआ है, एक बार भी घर में पांव नहीं रखा। क्या उसको याद नहीं आते, हम लोग ? क्या इसको हमें देखने की इच्छा नहीं होती ? कोई बोल रहा था उनके वहाँ का नियम-कानून बहुत ही तगड़े हैं। पैरेड करते हैं, बंदूके चलाना सिखाते हैं पढ़ाई करते हैं और तरह-तरह की बातें बता कर दिमाग में बुरादा घुसा देते हैं। ऐसी कितनी सारी बातें। एक जंगल में वे लोग ज्यादा दिन नहीं रहते। पुलिस को पता चल जाने से मुठभेड़ शुरु हो जाती है। इसलिये शायद छोटा भाई गांव में आ नहीं पाता है। उसके जैसी कितनी लड़कियाँ भी नक्सल में शामिल हुई थी। परबा भी शामिल हो जाती, तो माँ-बाप के पास फिर कौन रहता ? उसने देखा था, माँ-बाप दोनों कैसे-कैसे रो-रोकर याद करते रहते थे, अपने बच्चों को ? जंगल में युद्ध कब खत्म होगा ? कब वह लोग गांव के राजा जमींदार जैसे, गरीबों को खैरात बाँटेगे ? अगर यह बात है तो पहले वे लोग दारु की दुकाने बंद क्यों नहीं कर देते ? हमारे भाई-बंधु, चौबीस घंटों में से सिर्फ चार घंटा ही हवा-पानी पहचान पाते हैं, बाकी समय नशे में बेहोश पड़े रहते हैं। इस बार अगर छोटा भाई मिलेगा, तो जरुर कहूँगी कि पहले दारु पीना बंद करवाओ, लोगों को दिन के उजाले व रात के अंधेरे के बीच के फरक को समझाओ। इसके बाद जाकर नुरीशा, अलेख प्रधान जैसों के साथ लडाई करना।
इस बार अगर छोटे भाई के साथ मुलाकात होगी तो उसे खूब गाली देंगी। बोलेगी नक्सल में शामिल हो गया तो मां-बाप को भूल गया? चल आज मेरे साथ घर चल, दोनो बूढ़ा-बूढ़ी तेरी याद में काँटा-सा हो गये हैं, जिनके लिये लड रहे हो, उनके पेट में एक दाना भी नहीं। चल देख, घर का हाल। लडाई सीखनी है तो सिख, लेकिन घर तो आना-जाना रख। अच्छा, बता तो भईया। माँ-बाप को छोड़कर चला आया, क्या वे तुझे याद भी नहीं आते हैं ?”
देख, ऐसी मूसलाधार घनघोर बारिश के दिन परबा को गांव छोड़ना पड़ा है। उसके दुर्भाग्य ने उसको इस नरक में धकेल दिया, कैसे। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी की याद परबा को खूब सताती है। क्या खाये होंगे ? क्या पिये होंगे ? परबा की आँखे आंसूओं से भर गयी, माँ बाप को याद कर। कहाँ-कहाँ नहीं खोजे होंगे, इऩ दोनों ने परबा को ? भाजी चुनने गयी थी, कहीं नाला में बह तो नहीं गयी। उसकी माँ को बहुत संदेह था उस पठान लडके पर। सोचती होगी बडे भाई की तरह वह भी भाग गयी पठान लडके के साथ ? क्या कभी भी जान नहीं पायेगी माँ, कि परबा रायपुर शहर के सबसे घटिया नरक में रह रही है। किसी एक दिन के लिये भी उसके बाप को उस फोरेस्ट-गार्ड पर संदेह नहीं होगा। यद्यपि उस आदमी पर, उसके बाप को बहुत गुस्सा आता था क्योंकि उसके भाई डाक्टर को उसने बंधुआ मजदूर बनाकर भेज दिया था किसी अनजान देश में। फोरेस्ट-गार्ड का लाल-पीले दाँत दिंखाते हुये, उस कुत्सित हँसी की याद कर परबा का शरीर थर्रा गया था। इच्छा हो रही थी छोटे भाई के पास से बंदूक छुडाकर उस आदमी को जान से मार दे। बारिश में भीगी हुई परबा ने जंगल में, भाई को ढूंढते समय देखा था उस आदमी को। वह अपने छोटे से क्वार्टर में बैठकर बीडी का सुट्टा लगा रहा था।
अरे कौन ? कौन वहाँ खडी है ?”
परबा ने कोई जबाव नहीं दिया था। सब कह रहे थे कि नक्सल जंगल में डेरा डाले हुये है, लेकिन कहाँ ? दूर-दूर देखने से कोई भी तो नहीं दिख रहा था।
कौन ? सरसी है क्या ? हे पगली, तू इतनी बारिश में भी जंगल में आ गयी। तुझे अपने जान का कोई डर नहीं है, क्या रे ?”
चमक गयी थी परबा। सब उसकी मां को पगली कहते थे। बीच-बीच, जंगल जाकर उसके बड़े भाई को ढूंढती रहती थी इसलिये। परबा भी कितनी बार माँ को समझा चुकी थी बड़ा भाई तो ईसाई होकर भोपाल में रहता है बेईजू शबर के बेटी के साथ। तू किसलिये फिर जंगल में ढूंढ रही है उसको बता तो। भाई क्या इतने सालों तक जंगल में बैठा रहेगा ?”
टुकर-टुकर ताकते रहती थी उसकी माँ, जैसे कि अतीत के तार को वर्तमान के साथ, कोशिश करके, भी जोड़ नहीं पा रही थी। जैसे कि वह भ्रम की दुनिया में गोते लगा रही हो। उस दुनिया में है घने जंगल, और हैं सुंधी पिचासीनी।
परबा समझाती थी हे माँ ! .......फिर भी सरसी अंधेरे गलियारों से निकल नहीं पाती थी। जैसे समय स्थिर हो गया हो। उस समय में वह फंस गयी हो।
परबा माँ को समझाते-समझाते थक गयी थी। अंत में उसने माँ को उसके उसी हाल पर छोड दिया।
बीड़ी फूँकते-फूँकते फोरेस्ट-गार्ड पहुंच जाता है परबा के पास। अरे तू, तू तो सरसी की बेटी है ना ? तू भी तेरे माँ की तरह पगली हो गयी है, क्या ? इतनी मूसलाधार बारिश में यहाँ कहाँ आयी हो ? आओ, आओ, अंदर आ जाओ।
भीगी हुई साड़ी परबा के शरीर से चिपक गयी थी। लाज और डर के मारे उसका शरीर कांपने लगा था। वह फिर ऐसे स्थिर खड़ी हो गयी जैसे पत्थर की मूरत बन गयी हो। उसके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला, मगर वह आदमी यमदूत की भाँति उसका रास्ता रोककर खडा था। अरे ! अरे ! तुम कितनी भीग गयी हो। तुम तो अंतरा सतनामी की बेटी हो ना। आओ, बेटी, बारिश थोडा रुक जाने से, चले जाना।ऐसा क्या था बेटी के संबोधन में ? परबा के मन से भय चला गया। उसके बाप को भी जानता है वह आदमी, और मां को भी। वह आदमी इतना अच्छी तरह से बात करता है, फिर भी बाप क्यों उसके उपर गुस्सा करता है ? फोरेस्ट-गार्ड के पीछे-पीछे जाकर वह खड़ी हो गयी बरामदे में । उसके शरीर से बूंद-बूंद कर पानी टपक रहा था। पता नहीं कैसे वह अपना होश खो बैठी थी और चली आयी थी जंगल में इतनी दूर।
और कहाँ आयी थी तुम इतनी मूसलाधार बारिश में ? घर से रुठ कर आयी हो क्या ?”
नहीं, रुठकर क्यों आऊँगी ?”
इतनी बारिश में क्या कोई घर से बाहर निकलता है ?”
सिर झुकाकर खड़ी हुई थी परबा। चुपचाप खड़े होने से उसकी माँ की तरह पागल समझ लेगा, इसलिये वह बोली घर में चावल नहीं थे। मैं शाक-भाजी जंगल से लेने आयी थी।
भात खायोगी ?” पूछा था फोरेस्ट-गार्ड ने।
घर के अंदर लकड़ी के चूल्हे पर टग-बग, टग-बग करके भात उबल रहा था। खुशबू से पेट और मन तृप्त हो रहा ता परबा का। एक सप्ताह हुआ है उसको भात छुये हुये। नाक को उसकी खुशबू भी नसीब नहीं हुयी थी। भूख से मुंह से पानी निकल आ रहा था। उसने मन भर कर आज इस खुशबू को सुंध लिया।
फोरेस्ट-गार्ड उसे हाथ से पकड कर ले गया था और बैठा दिया था रस्सी की खटिया पर। परबा ने हाथ छुड़ा लिया था।
मेरा शरीर भीगा हुआ है।
तो क्या हुआ ? भीगा कपड़े क्यों पहन कर रखी हो ? फेंक दो।
परबा आश्चर्य-चकित होकर उस आदमी की तरफ देख रही थी। तब तक उस गार्ड ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। देखोे, कितनी हवा चल रही है!परबा को डर लग रहा था। उस आदमी ने ऐसे क्यों कहा कि भीगे कपड़े फेंक दो। उस अधेड़ आदमी को कुछ लाज-लज्जा है या नहीं ? पता नहीं, कैसे भात की खुशबू के साथ उसे एक अन्य-गंध का भी अहसास हुआ। डरी हुई हिरण की तरह वह घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई। मैं घर जाऊँगी।
जरुर जायोगी।उस आदमी का कठोर हाथ उसके कंधे पर पड़ा। मै क्या तुझको यहीं पर रखूँगा ? तुम इस गांव की लडकी हो। तुझको यहाँ रखने से गांव के लोग क्या मुझे रहने देंगे ?”
मेरे माँ-बाप मेरी राह देखते होंगे।
रुक, भात बन गया है, खाकर जाना। मुर्गी पकाया हूँ। मुर्गी का झोल के साथ भात दो मुट्ठी खाकर जाना। पहली बार तो तुम मेरे घर आयी हो।
बिना किसी कारण, क्यों इतना आदर-सत्कार कर रहा है यह आदमी? जबकि गांव के सबसे अछूत व गरीब लोग है वे लोग। कोई भी उनके हाथ का पानी नहीं पीते है। उनकी छाया पड़ने से दुकान भी अशुद्ध हो जायेगी, इसलिये तो नुरीशा की दुकान से दूर रहना पड़ता है।
गार्ड बोला मैं बोल रहा था आज तो मेरे घर में दो मुट्ठी चावल खा लेगी। कल क्या तुझे फिर भूख चैन से बैठने देगी ? तेरे भाई लोग तो, साले नकम-हराम, अपने पैदा किये हुये माँ-बाप को पूछे नहीं। तू अगर कहेगी तो तुझे किसी धंधे-पानी में लगा दूँगा। रायपुर के र्इंटा-भट्टा में कितनी लड़कियाँ काम करती है। दिन भर की हाजरी पचहत्तर रुपये हैं। रहने के लिये खोली देंगे। चाय, चावल का जुगाड़ भी मिलेगा। तू थोडे ही न लड़का है, जो अपने माँ-बाप को भूल जायेगी। लड़की है जहाँ भी रहेगीे, अपने माँ बाप का ख्याल रखेगी। तुम्हारे गांव से बिलासीनी, जयंती, तोहफा वगैरह नहीं गये है क्या ?”
परबा धरती और आकाश के बीच झूला झुलने लगने लगी थी। कभी नीचे धरती की तरफ देखती, तो कभी ऊपर आकाश की ओर। कभी-कभी डर से सिहर उठती थी। कभी-कभी हवा में तैर जाती थी। इस आदमी की बात पर वि·ाास करें या न करें। कभी-कभी लगता था उसका अभिप्राय ठीक नहीं है। फिर कभी ऐसा लगता था, इतनी सारी लड़कियों को काम में लगा चुका है, तो कहीं न कहीं उसकी बातें सच भी होंगी। छोड़ो !
गार्ड उसके खुले पीठ पर हाथ फेरते हुये बोलने लगा क्या बोल रही हो ?” जायेगी, या नहीं जायेगी, वह तो अलग बात है। लेकिन यह आदमी इधर-उधर हाथ क्यों लगा रहा है ?
हाँ जाऊँगी।परबा उठ खड़ी हुई
मेरी माँ आ रही होगी।
इस बारिश में। बैठ, एक साथ खाते हैं। मेरे यहाँ कौन है खाने के लिये? अकेला खाने को मन ही नहीं होता। रसोई तो करता हूँ, पर देखोेगी, यह सब खाया नहीं जायेगा, तो फेंक दूंगा। नहीं देख रही हो, उस कोने में आधा बोरा चावल कैसे पड़े हैं ? रात भर चूहे कुतर-कुतर कर खाते रहते हैं। जाते समय दो चार किलो चावल ले जाना अपने घर। देख, मैं दयावान हूँ इसलिये चावल दे रहा हूँ, पर तेरे बाप को यह बात मत बोलना। कौन साला, तेरे बाप को मेरे बारे में भड़काया है? मेरा नाम सुनने से तेरे बाप की आँखों में खून उतर आता है।एक असह्र बदबू उसके भूखे पेट के तह तक पहुंचकर उसकी आंतडियों को कुतर रही थी।
तब तक इधर परबा को गार्ड आधा निगल चुका था, उधर हांडी में चावल उबल रहे थे। इधर पेट में भूख दौड़ रही थी। उधर एक आदमी लगातार मेहनत कर रहा था। अनकही आवाज में परबा बुला रही थी: माँ, माँ
क्यों ऐसा कर रही हो,पगली ? मैं अकेला रहता हूँ, तू क्या समझेगी अकेले आदमी का दुख ?”
मुझे छोड़ दे, मुझे जाना है।परबा अपने को छुडाने की चेष्टा कर रही थी, पर सब व्यर्थ। इधर एक पेट की भूख से घायल, उधर दूसरा शरीर की भूख से। भूखों का कितना भयानक अनुभव है इस संसार में! निस्तेज, थकावट से चूर-चूर, अधमरी, हो गयी थी परबा। और गार्ड था अस्थिर, उन्मादी और अनियंत्रित। चूल्हे पर चढ़ी हुयी हांडी से ढक्कन को धकेलते हुये उबलते चावल और माँड, जीभ लपलपाते हुये आग में कूद रहे थे। आग सफेद चावलों को चट कर जाती थी। रह-रहकर मांसाहार पकने की बास आ रही थी। बहुत तेज आंधी चल रही थी। आंधी उड़ा ले रही थी परबा की संचित सारी संपदा। उसका कौमार्य, नारीत्व कोई जैसे सूद और मूल सहित वसूल कर रहा हो।
छोड़ दे, हराम जादे, छोड दे, मुझे।एक का क्षय हो रहा था, तो दूसरा पा रहा था पूर्णता। एक हार रहा था, दूसरे की हो रही थी जीत। एक की आँखों में थे आँसू, दूसरे के होठें पर थी कुटिल हँसी। सिसक-सिसककर रो रही थी परबा, बारिश और झींगुरों की आवाज में दब गया था परबा का रूदन।
भात की हांडी से सूख गया था पानी और भात जलने की बास आ रही थी। चारों तरफ धुंआ ही धुंआ, जले हुए चावल की बास और ना......., चावल अब लुभावना नहीं लग रहा था।
परबा उठकर बाहर आ गयी। पीछे से बुलाकर दयावान गार्ड ने सड़े-गले चावलों का एक झोला उसकी ओर बढ़ाते हुये कह रहा था
ले, ले जा, अगर र्इंटा-भट्टा जाना हो तो, मेरे साथ भेट करना
मशीन की चावल का झोला पकडते हुये सोची थी- छोटा भाई किस जंगल में है ? उसे कैसे सुनाई नहीं दिया, परबा का रोना-धोना ?

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