१३
१३
“कपोत और कपोती दोनों पक्षी अपने पेड़ पर
घौंसला बनाये थे समझा, परमा। एक दूसरे को बिना देखे रह नहीं
पाते थे । यह पूरा संसार तो माया है,
और माया
में सब बंधे हुये हैं। पेड़ की इस डाली से उस डाली तक कूदते-फांदते हुये वह गीत
गाते थे, नाचते थे। चोंच में चोंच लगाकर कितनी
क्रीड़ा करते थे, कितने हंसी-मजाक करते थे। कुछ दिन बीते, कपोती गर्भवती हुई। कपोत मन ही मन बहुत खुश हुआ कुछ दिन बाद, कपोती ने दो अंडे दिये। कहीं बाहर नहीं जाकर दोनों पक्षी अंडे सेंकने में
लगे हुये थे। साँप, बिल्ली और गिद्ध से अंड़ों को बचाकर रखे
हुये थे।”
घर के आंगन में मिट्टी गूंथकर रसोईघर की दीवार पर पोत रही थी सरसी। लेकिन
उसका ध्यान बाहर बरामदे की तरफ था। उसका आदमी अपंग होने से भी ज्ञान की बातें
जानता था। छः आठ महीने सोनपुर की तरफ रह गया,
वहाँ से
पुरान-भागवत के सारे ज्ञान की बाते सीखकर आया था।
बाहर बरामदे में परमा, कुरैसर,
जीवर्धन
और छत्र बैठे हुये थे। सबकी उम्र अंतरा के आस पास थी। अंतरा ने भागवत में जो कहानी
अवधूत ने यदुराजा को सुनायी थी वही कहानी सुना रहा था। बीच-बीच में एकाध पद्य सुर
के साथ गाता था। ऐसे भी अंतरा का कंठ बहुत ही मीठा था। तत्व-ज्ञान की बातें
करते-करते वह भाव-विभोर हो जाता था। इसलिये बीच-बीच में उसके बरामदे में लोगों का
अड्डा जमता था। कोई ऊँची जाति के लोग देखते थे,
तो
हँसते थे। बोलते थे, “देखो तो,
अब चमार
भी पढ़ रहा है वेद-शास्त्र।”
अंतरा का मन ठीक नहीं था। सरसी की बात उसकी सीने में चुभ गयी थी। कितने शौक
से उस पगली ने अपनी बेटी के लिये इकट्ठा कर रखा था कुछ रुपया-पैसा। सब लाकर उसके
सामने पटक दिया था. और बोली थी “हमारे सब बच्चे चिडियों जैसे है ना ?” मन ही मन बोल रहा था अंतरा “चिड़िया नहीं तो और क्या ? घर को सुना करके जिसका जिधर मन हुआ,
उड़ चले।” बाहर बरामदे में बैठकर सुर लगाकर गाने लगा
“ध्यान से सुनो तुम राजन; किसी दूर प्रदेश में था एक वन
रहता था कपोत, एक कपोती के संग ; स्नेह भाव से भरे हुये थे उनके हरेक अंग
रखती थी कपोती, कपोत के संग भोग के आश, सीमित था जीवन उनका, बंधे हुये थे मोह के पाश
नित्य करते रहते थे वे क्रीड़ा के रंग,
पल भर
भी नहीं छोड़ते एक दूसरे के संग
स्नेह-बंधन में वे बँध जाते,
हँसी-खुशी
से जीवन बिताते
कभी भी संग न छोड़ना चाहते, विच्छेद होने पर बहुत दुःख पाते
भोजन-शयन में जैसे साथ रहते,
साथ
वैसे ही वन में घूमते
कपोती का मन जिसमें लगता, तत्पर होकर कपोत उसकी इच्छा पूरी करता
कपोत करता ऐसी सेवा, कपोती मानती उसे अपना देवा
ऐसे ही कुछ दिन बीत है जाते,
गर्भवती
होकर कपोती, कपोत संग सपने संजोते
दोनों स्नेह से घौंसलें में रहते,
पुत्र-आशा
में प्यार से अंडे सेंकते
ऐसे ही दिन गुजरे अच्छे, अंडे फोडकर निकले बच्चे
अति कोमल थी दोनों की काया, ये सब थी प्रभु की माया।”
परमा कहने लगा “चिड़िया हुई तो क्या, बच्चों के प्रति लगाव तो होगा ही ?
साधारण-सी
एक चींटी जब मर जाती है, उसको भी उसके कुटुम्ब वाले पीठ पर
लादकर ले जाते हैं। फिर ये तो उनके पैदा किये हुये बच्चे हैं, उसके बाद फिर क्या हुआ अंतरा ?”
और क्या होगा ? बच्चों के पंख निकल रहे थे, वे फडफड़ाना शुरु कर रहे थे। बच्चों की आँखे ठीक से खुली नहीं थी, वे लाड़-प्यार से पल रहे थे। अपने परिवार को खुश देखकर, कपोत-कपोती का मन प्रफुल्लित हो उठता था। बच्चों को खिला-पिलाकर ठीक से
रखने की चाहत से कपोत-कपोती दूर आकाश में उड़ जाते थे।
चोंच में दाना लेकर वे लौट आते थे। बच्चों को देखकर माँ का मन खुशी के मारे
फूला नहीं समाता था। कभी-कभी वह घबरा जाती थी बच्चों को छोड़ इतना दूर चली आयी है, कहीं कोई देख तो नहीं लेगा। मन में तरह-तरह की चिन्तायें और आशंकायें पैदा
हो रही थी। वह दाना तो जरुर चुग रही थी,
पर उसका
मन तो अटका रहता था अपने घौंसला पर।
“चिड़िया हुई तो क्या ? उसके मन में कोई चिन्ता, भावना नहीं होगी ?” बोला था कुरैसर।
“इसके बाद क्या हुआ ? क्या बिल्ली ने उनके बच्चों को खा लिया ?”
पूछ रहा
था छत्र।
अंतरा की आँखों के सामने आ जा रहे थे उसके चार-चार बच्चों के चेहरे।
कलेक्टर, डाक्टर,
वकील और
इकलौती लडकी परबा। उसको उसके बच्चे,
कपोत की
तरह दिख रहे थे। ठुमक-ठुमक कैसे चल रहे थे आंगन में! जैसे कपोत के बच्चों की तरह
आंगन में सुख रहे महुवा के फूलों को एक-एक करके वे मुँह में डालते जा रहे हो।
“अंतरा,
तुम सो
गये क्या ?” गला खंकार कर एक मोटी आवाज में पूछा था
परमा ने।
“नहीं,
भाई, नहीं, कैसे सो जाऊँगा ? तो अभी सुन, वह तो पेट पालने की बात थी। घर बैठते
तो क्या चार-चार प्राणियों का पेट भरता ?
कपोत-कपोती
दूर-दूर गांवों में जाने लगे, जैसे हम लोग हड्डी उठाने दूर-दूर जगहों
पर जाते रहते हैं। गाय उठाने दूर-दूर तक भागते रहते हैं। कहाँ-कहाँ हम लोग नहीं
गये हैं, बता तो,
भाई ?”
“कपोती देखी उसके बच्चे उड़ना सीख रहे है, डालियों से डालियों पर कूदने लगे हैं। थोड़ा सा उडने पर थक जा रहे हैं।
लेकिन पंख हिला कर उड़ना सीख गये हैं। पंख मजबूत होने लगे थे। उस उम्र में बच्चे
बड़े नासमझ होते हैं। वे क्या समझ पायेंगे कि चारों तरफ विपदायें ही विपदायें है ? नन्ही-नन्हीं आँखों में उनके,
बड़े-बड़े
सपने देख रहे हैं माँ-बाप, कितनी ऊंचाई तक उड़ पा रहे है! कभी सूरज
को , तो कभी चांद को छूकर आ रहे हैं। नदी, पहाड़ घूमकर आ रहे हैं। बच्चे उडकर,
क्या
इतनी सी छोटी ऊँचाई को भी छू नहीं पायेंगे ?
उनके
पंख से भी ज्यादा मन छटपटाता है।
दोनों बच्चे पेड़ की डाली से उतर कर मिट्टी में कूद-फाँद कर रहे थे। ऐसे समय
में एक शिकारी वहाँ आ पहुंचा। सुंदर सुंदर चिडिया के दो बच्चों को देख कर उसका मन
लुभा गया। चारों तरफ जाल बिछा दिया,
बच्चों
को प्रलोभन देने के लिये, कुछ दाना भी फेंक दिया। कपोत-कपोती के
बच्चे गाना गाते हुये घूम रहे थे। उनको क्या मालूम था कि शिकारी की चाल के बारे
में ?
समझा परमा! यह संसार भी ऐसे ही जाल की तरह है। तु सुख के पीछे जितना भागेगा, इतना ही इस जाल में फसता जायेगा। बचकर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं
मिलेगा।” बोलते-बोलते एक लंबी सांस छोड़ी थी
अंतरा ने।
उसके चारों बच्चे सुख के पीछे कहीं ऐसे चले गये, जो और लौटे ही नहीं। वे भी ऐसे ही सुख के पीछे भागकर किसी जाल में फंस गये।
“फिर क्या हुआ अंतरा ?” पूछा था छत्र ने। खट से जैसे अंतरा का नींद टूट गयी। वह सुर लगाकर गाने लगा
-
“दाना देखकर नन्हें नयन, फंस जाते है शिकारी के बंधन
तुरंत आ पहुंचते कपोत-कपोती,
पास पेड
के, हो अस्थिर मति
चोंच में लेके थोड़ा-थोड़ा आहार,
खोज रहे
थे वे बच्चों को निहार
खोज रहे थे चारों दिशायें, उपर और नीचे, पर कहीं मिले नहीं वे बच्चे
जाल-बंधन में फंसे वे बच्चे,
करने
लगे चुं चुं चे चे
रह रह कर पंख फड़फडाते, चें चें कर अपना जीव बचाते
हुआ बहुत दुःखी कपोती का चित्त,
गिरी
भूमि पर होकर अचेत
सुनकर बच्चों का चें चें क्रंदन,
कपोती
करने लगी प्रचंड-रूदन
कैसे बचाऊँ मैं अपने बच्चे सुंदर,
कूद पड़ी
वह खुद जाल के अंदर
देखकर फंसा हुआ उसका परिवार,
कपोत के
दुखों का नहीं था कोई पारावार
अब कैसे रहूंगा मैं अकेला अकेला,
जिसका
कोई नहीं संगी, साथी और चेला
कपोत कर रहा था ऐसा घोर चिंतन,
बार बार
हो रहा था अचेतन।”
आह ! आह ! शब्दों से पूरा बरामदा गुंजित हो उठा। क्या-क्या कष्ट भोगने नहीं
पड़े ? बिचारे कपोत-कपोती को। कुछ पल के लिये, वे लोग जैसे कि भूल गये थे एक के बाद एक उन्होंने अपने बच्चों को गंवाया
है। केवल इतना ही है, कि उनके बच्चे उनके सामने छटपटाकर नहीं
मरे हैं। इसलिये नहीं,नहीं कर मन में आस बांधे वे लोग बैठे
हुये है, कि उनके बच्चे जरुर कहीं पर भी सुखी ही
होंगे।
मिट्टी से लथपथ हाथ लेकर भाग कर आ गयी थी सरसी अंदर से। जमीन के ऊपर घडाम्
से बैठ गयी। और जोर-जोर से रोना
शुरु कर
दी। “मेरा सन्यासी, मेरा डाक्टर, मेरा वकील और मेरी परबा, तुम लोग कहाँ चले गये ?” जैसे कि इस प्रकार की परिस्थिति के
लिये को तैयार नहीं थे। सभी लोग दोनों चिड़ियों के दुःख में दुखी थे। ऐसा लग रहा था
जैसे कि सरसी ने आकर ताल तोड़ दी हो। परमा बोलने लगा “चुप हो जाओ भाभी, देख रही हो ना, भागवत-पुराण से कितनी दर्द भरी कहानी का श्रवन-गायन हो रहा है ! अंतरा, तुम गाते जाओ। बच्चे, औरत मरने के बाद कपोत का क्या हुआ ?”
“बच्चे,
औरत को
छोड़कर कपोत और करता भी क्या ? क्या वह जीवन जी पाता ? पेड़ की डाली पर बैठकर वह रोने लगा और मन ही मन वह अपने आपको कोसता रहा।”
छत्र बोला “सुना अंतरा, आगे का पद्य, सुना कैसे वह कपोत अपने परिवार को खोकर
तड़प रहा था ?” अंतरा सुनाने लगा, -
“वह मेरी थी मन की वीणा,
उसके बिना अब कैसा जीना
विधी का विधान अटल-अभिन्न
आपदा से पूरा परिवार छिन्न-भिन्न
वन में कितना कष्ट सहूंगा
इससे अच्छा मर पडूंगा
इस घोर-वन गृहस्थी का अर्थ
जन्म हो गया मेरा व्यर्थ
गृहस्थाश्रम में मेरी ऐसी प्रीति
विफल हो गयी मेरी सारी नीति
विधाता का यह कैसा न्याय !
पुत्र-पत्नी सब जाल में फंस जाये
पतिव्रता थी वह एक शिरोमणी
प्राणों से अति प्यारी मेरी गृहिणी
पहले खिलाती पति को खाना
फिर चुगती वह अपना दाना
छोडकर मुझे मंझधार
चली गई वह स्वर्ग सिधार
चले गये सब मेरे सुख
पुत्र-पत्नी के बिना सब दुख ही दुख
बिलख-बिलख कर कपोत करे विलाप
उसके मन में अति संताप
जीवन में, मैं अब क्या करुँगा ?
जाल में पड़कर मैं भी मरुँगा।
..असमय पर ही उसका संसार टूट गया था।
हाहाकर करते रोते-बिलखते, कपोत भी जाल में गिर गया और उसने अपने
प्राण-त्याग दिये।” बोलते-बोलते चुप हो गया अंतरा। “ना कोई आह ! ना कोई चूं-चूं।”
जैसे कि
समय घायल होकर गिर गया हो, और पत्थर बन गये थे सारे सुनने वाले
श्रोतागण। धीरे से अंतरा अपनी लाठी पक़ड़कर ठक्-ठक् कर निकल गया था बाहर की तरफ।
पीछे-पीछे एक-एक कर सभी अपने-अपने घर की तरफ निकल पड़े।
सरसी भीतर से बाहर की तरफ भागकर आयी और इधर-उधर झांकने लगी। ना, अंतरा तो कहीं भी नहीं दिख रहा है। इतनी बड़ी-बड़ी बातें सुनाकर वह आदमी कहाँ
चला गया ? बिना कुछ खाये, बिना कुछ पीये, कहाँ गया होगा वह अंतरा ? हांडी-फोड़कर जो पैसा निकाली थी,
उसी में
से दस किलो चावल खरीद कर ले आयी थी सरसी। ना कोई सब्जी, ना कोई दाल, एक मुट्ठी चावल उबालकर पेट भर देने से
बात पूरी।
चूल्हे में से राख हटाकर सूखे हुये कुछ लकड़ी के टुकडों को डाल दिया था सरसी
ने। फूंक लगाकर धीरे-धीरे आग लगा रही थी चूल्हे में। कुछ देर फूंक लगाने के बाद, हल्का-हल्का धुंआ निकलने लगा था चूल्हे में से। कहाँ चला गया था अंतरा ? फिर एक बार बाहर निकल कर अंतरा के लौटने की राह ताकने लगी।
चूल्हे पर पानी बैठाकर चावल डाल दी थी सरसी,
चावल
उबलकर भात बन गया, लेकिन सन्यासी का बाप लौटा नहीं।
चिन्ता से सरसी का मन अस्थिर हो रहा था। खूब सारी खराब-खराब बातें आने लगी थी उसके
मन में। सरसी को रोना आ गया था।
‘जाऊँ या ना जाऊँ’, होकर सरसी निकल पडी थी नाले की तरफ। अनमनी होकर भाजी चुनते-चुनते उसकी नजर
पड़ गयी थी दो-चार धोंधों पर। उन धोंधों को साड़ी के पल्लू में बांध ली थी सरसी। आज
उसको भूंजकर पीसकर चटनी बना देगी अंतरा के लिये।
“कहाँ जायेगा, अंतरा ?” कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। घर से
अचानक निकल गया था अंतरा। उसके किस्मत में थे इतने सारे दुख-दर्द! कहाँ बाँटेगा
उनको? कोई भी जगह नहीं मिल पा रही थी। आँखों
में बार-बार पानी भर आता था, पड़ौसियों के सामने वह रो नहीं पाता था।
आँखों के आंसू छिपाकर, वह चल पड़ा था बरामदे में से। कौन है
उसका ? वह कहाँ जायेगा ? कुछ देर तक बैठा रहा पीपल के पेड़ के नीचे। माँ की तरह आंचल फैलाकर खड़ा था
वह पीपल का पेड़। गरमी में ठंडी-ठंडी हवा देता था वैसे, पास में बैठकर माँ झूला रही हो पंखी जैसे।कौआ, कोयल , ऐसे कितने सारे पक्षी उसकी डालियों पर
घोंसला बनाये हुये थे। बुलाते हुए उड़ जा रहे थे,तो कभी लौट आते थे। गाय अपने बछड़ी के
साथ सोयी हुई थी कुछ ही दूर पर। अंतरा सोच रहा था,
जैसे कि
यदुराजा को अवधूत संसार की माया के बारे में समझा रहे थे वैसे ही हरिदास मठ में, कितने सारे शास्त्र-पुराण पढ़ कर कभी वह भी अपने दूसरे शिष्यों को समझाता
था। अंतरा सोच रहा था माया-बंधन छोड़कर फिर एक बार वह मठ चला जाता ? लेकिन वह क्या संभव था ?
जैसे माँ के पल्लू के तले, उसके पंखी की ठंडी-ठंडी हवा में, अंतरा की आँखे लग गयी थी। वहीं पर,
उसी पेड़
की गोदी में वह सो गया था। नींद टूटते समय देखा कि सूरज दूसरी तरफ जा चुका था। अरे
! इतनी देर तक सो गया यहाँ । आह ! बेचारी पगली सरसी उसको नहीं पाकर रोते-रोते
हाल-बेहाल हो गयी होगी। पूरे बस्ती भर के लोगों को तंग कर दी होगी, उसको ढूंढने के लिये। अंतरा ने यह ठीक काम नहीं किया। धीरे-धीरे वह अपने घर
की तरफ लौट चला।
“कहाँ चले गये थे तुम ? कहाँ-कहाँ मैने नहीं ढूंढा तुमको ?”
बोलते-बोलते
रो पड़ी थी सरसी। “मुझे छोड़कर कहीं चले जाने का इरादा था
क्या ?”
“तुमको छोड़कर कहाँ जाऊँगा ? तुम तो मेरे गले में बंधी हुयी हो। किसके पास छोडकर जाऊँगा ? जो जहाँ हो पाया, चला गया,
लेकिन
मैं कहाँ जाऊ ? तेरी माया-बंधन से क्या मैं मुक्त हो
पाऊँगा, सरसी ?”
“आखिरी में तुम भी ऐसे बोलते हो, जैसे कि मैं तुम्हारे लिये एक बोझ हूँ। मुझे तो थानेदार ले गया था जेल में
सड़कर मर जाती, मुझे छुडवाकर क्यों ले आया ? अभी भी समय है, जाना है तो चला जा। मैं तुम्हें नहीं
रोकूँगी। मुझे छोडकर इतने साल तक आश्रम में रहा,
लोग
मुझे भला-बुरा कहने लगे। ऐसे समय में भी मैंने छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोदी में
लिये बड़ा किया या नहीं ? अभी कौन है मेरे पास ? ना कोई बेटा, न कोई बेटी। आज हूँँ, कल आँख मूंद लूंगी। मैं अब और तुम्हारे रास्ते में कांटा नहीं बनूंगी।”
अंतरा समझ गया, नाराज होकर जो मुंह में आ रहा है, वह बकवास किये जा रही है, पगली। कहाँ जायेगा पगली को छोड़कर ? यदुराजा को अवधूत जितना भी समझायें,
क्या यह
माया का चक्र वास्तव में टूटता भी है ?
कभी
सरसी अपने सन्यासी को जंगल में ढूंढती है,
तो कभी
किसिंडा में अपनी परबा को। अगर वह चला जायेगा,
तो उसको
भी कहीं न कहीं जाकर ढूंढने लगेगी।
सरसी आंसू पोंछते हुये अलुमिना थाली में भात-पखाल परोस दी। भूने हुये
घोंघों को पीसकर मिर्च,लहसुन मिलाकर कब से चटनी बनाकर रखी थी।
छोटी-सी कटोरी में चटनी लाकर रख दी। फिर से जाल-जंजाल में फंस गये थे कपोत-कपोती।
सब माया है, जानते हुये भी, निकल आने का कोई उपाय नहीं। नहीं,
नहीं, सचमुच में कोई उपाय नहीं।
Comments
Post a Comment