९
९
जिस ‘इड़ीताल’
ने उसको
जोड़ा था सन्यासी से, उसी इड़ीताल ने उसको दूर कर दिया था
सन्यासी से। चैती इड़ीताल को दोष देती है। उसका सन्यासी चित्रांकन करता था, ड्राँइग टीचर था वह भोपाल के एक मिशन स्कूल में। चैती भी माहिर थी
चित्रांकन में। वह अपने दादाजी से सीखी थी। विभिन्न प्रकार की मछली, कछुआ, भेंड़,
बकरी, शिकारी, पक्षी आदि के चित्र बना सकती थी।
सन्यासी बोल रहा था ऊपर में प्रभु यीशू बैठे हैं,
उसने हम
दोनों को मिलाया है। तुम मेरी एक दिन ‘मास्टरानी’ बनोगी, इसलिये प्रभु यीशू ने तुम्हें मुझे
दिया है। जंगल में बांसुरी बजा-बजाकर मैंने तुमको पाया है। उस समय मुझे क्या मालूम
था लाल फ्राँक पहने हुई रहस्यमयी देवी की भाँति इतनी जल्दी मेरे हाथ में आयेगी और
तुम बंध जायेगी मेरी बांसुरी के सुरों में।
लाल फ्राँक पहनी हुई यह तितली इतने गुणों से भरपूर है ! तुम किस प्रकार से
एक बार मुझे अपने चेहरे की झलक दिखाकर गायब हो गयी थी, याद है वह दिन ? मैं तुमको ढूंढते-ढूंढते पत्थर काटने
वाले कामगारों के बीच में जा पहुंचा था। वहीं से खोज निकाला था तुम्हें, जानती हो ना ?
“जा रे,
तुम
क्या क्या कहते रहते हो ? मैं कुछ समझ नहीं पाती हूँ।” चैती ने हँसते-हँसते उत्तर दिया।
“तुमको समझ में नहीं आये, इसी में अच्छा है। जैसी सीधी-सादी हो वैसी ही बनी रहो।”
उसने सन्यासी को भी वह कला सीखायी थी,
जिसको
अपने दादाजी से सीखी थी। इस बात को लेकर बाप के साथ दादाजी का अक्सर झगड़ा होता था।
तुम बेईजू, मेरी पोती को इतना कष्ट क्यों दे रहे
हो ? इसके नाजुक-नाजुक हाथ क्या भगवान ने
पत्थर काटने के लिये बनाये हैं ? देख,
कैसे
फफोले पड़ गये हैं मेरी इस प्यारी पोती के हाथों में ?
चैती ने सिखाया था मयूर, तोता,
धान के
पौधे, शिकारी और कितने-कितने किस्म के इड़ीताल
सन्यासी को। सन्यासी कुशाग्र बुद्धि का था। सन्यासी के हाथों में कुशलता थी, इसलिये उसने जल्दी ही, सिख लिया था यह सब।
चैती सोचती थी, काश वह सिर्फ पत्थर काटती होती ! काश
वह अपने दादाजी से इडीताल नहीं सिखी होती ! इस कला को वह अगर सन्यासी को नहीं
सिखाती, तब भी तो चलता। इसी इड़ीताल की वजह से
आज उसके पति दूर विदेश में हैं। पता नहीं,
क्यों
सिखा रही थी वह ! कभी-कभी वह इडीताल को दोष देती थी तो कभी-कभी खुद को।
एक दिन शाम को इमानुअल साहिब की पत्नी मैरीना मैम साहिब ने बुलाया था
सन्यासी को। उस बूढ़ी की बात को कभी भी सन्यासी टालता नहीं था। जितना भी काम रहने
से भी, जितना भी विषम समय होने पर भी, वह तुरन्त दौड़ कर चला जाता था उनसे मिलने। “जानती हो चैती, वह किसी जन्म में मेरी माँ थी। उन्हीं के कारण मुझे खाने के लिये मिलती है
आज दो वक्त की रोटी। आज मैं मान-सम्मान का जीवन जी रहा हूँ। नहीं तो, सोच, कहाँ पड़ा-पड़ा मैं सड़ रहा होता ?”
सन्यासी मिशन में रहकर अपने गांव की मिट्टी को भूलते-भूलते अपनी ‘देशीया भाषा’ भी भूल चुका था। वह बात करते समय मिशन
की भाषा में बात करता था। इसलिये चैती को ऐसा लग रहा था सन्यासी का ज्ञान बहुत बढ़ गया है। वह जो भी बोल रहा है,
अच्छा
के लिये बोल रहा है। सन्यासी को यह नया रूप किसने दिया था ? मैरीना मैम साहब ने। इसलिये मैम साहिब के पास से कोई बुलावा आने से चैती
मना नहीं करती थी। बोलती थी- “जाओ,
आपकी
असली माँ बुला रही है।”
जिस दिन वह चर्च में ईसाई बन गयी थी सन्यासी से शादी करने से पहले, उस दिन मैरीना मैम साहिब ने कहा था - “चैती का नाम आज से होगा ‘ईसावेला’।”
फादर ने
चैती को ईसावेला के नामकरण होने पर उसे आशीर्वाद भी दिया था। दो दिन बाद ईसावेला
ने शादी की थी, क्रिस्टोफर सतनामी के साथ। इस नये नाम
को आसानी से चैती मान नहीं पा रही थी। एक दिन मजाक से सन्यासी ने कहा था “ईसावेला, ईसावेला सुनो तो!”
चैती बैठकर सब्जी काट रही थी। जैसे गहरी नींद में खोयी हुई हो। उसके अंदर
से तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह आवाज उसके पास से होती हुई गुजर गयी।
सन्यासी ने नजदीक आकर हिलाते हुये उसको कहा
“कितनी देर से तुमको बुला रहा था, सुन नहीं रही हो क्या ? कान में रुई डाल रखी हो क्या ? किसी दूसरे की सोच में पड़ी हो ?”
चैती ने उल्टा पूछा “तुम मुझे बुला रहे थे क्या ? मुझे पता कैसे नहीं चला ? तुम सच बोल रहे हो ?”
“तुमने नहीं सुना है ईसावेला, ईसावेला ?” हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी थी चैती।
बोलने लगी “तुम मुझे मैम साहिब वाले नाम से
बुलाओगो तो कैसे समझ पाऊंगी ? तुम्हारा नाम क्या है ? ओह! बार-बार मैं भूल जाती हूँ।
“क्रिस्टोफर”
“क्रिस्टोफर और ईसावेला ?”
खूब हँसी थी चैती। आखिरकर तूने मुझे ईसाई बना ही दिया। सन्यासी बोला था “नहीं रे, चैती! हम दोनों ईसावेला और क्रिस्टोफर
नहीं। हम तो लहरीदार पहाड़ों की तलहटी के चैती और सन्यासी हैं।”
लेकिन सन्यासी तो क्रिस्टोफर सतनामी बनकर चला गया था विदेश। और धीरे-धीरे
अपनी चैती को भूल गया। मैरीना मैम भी नहीं हैं। होती तो, भला वह पूछती, सन्यासी के हाल-चाल के बारे में। शायद
वह उससे जिद्द भी करती, बोलती मुझे मेरे सन्यासी को लौटा
दीजिये।
मैरीना मैम साहिब तो सन्यासी की माँ हैं। उनकी शादी के समय एक अच्छी
साड़ी-ब्लाउज, और सोने की अँगूठी बनवायी थी मैरीना
मैम साहिब ने। अगर वह माँ नही होती,
तो क्या
वह इतना करती? सन्यासी के लिए पैण्ट-शर्ट, एक जोड़ी जूता भी खरीदी थी। दोनों ने आपस में अपनी-अपनी अंगूठियों की
अदला-बदली भी की थी। सन्यासी तो एकदम अपटूडेट,
फिट-फाट
साहब के जैसे लग रहा था। मैम साहिब ने कैमरे में उसकी फोटो भी उतारी थी। मिशन में
उस दिन एक अच्छी दावत का आयोजन भी किया गया था। गांव में क्या इतने ठाटबाट, साजो-सज्जा हो पाती ? मैरीना मैम साहिब सबको ऐसी अँगूठी, पेण्ट-शर्ट जूता नहीं देती। सन्यासी तो ठहरा उसका धर्म-पुत्र। इसलिये
समय-असमय बुलाने पर, सन्यासी भी दौड़ जाता था, तेजी के साथ, मैमसाहिब के पास।
एक बार इमानुअल साहिब ने बुलाया था,
कुछ लोग
विदेश से आने वाले हैं, इसलिये एक सभागार में चित्र बनाने
होंगे ? भोपाल में सबसे बड़ा सभागार था। पूरी दिवारों पर ईड़ीताल के चित्र बनाने होंगे। दीवार पूरा करने में एक हफ्ते से
भी ज्यादा समय लग जायेगा। सन्यासी सवेरे आठ बजे घर से निकलता था और पहुँचता था घर
रात आठ बजे। क्या खाता होगा ? क्या पीता होगा ? उधर चैती की हजार चिन्तायें। दिन भर का अकेलापन खूब सताता था चैती को।
सन्यासी घर में होने से दोपहर भी पूर्णिमा की रात की तरह लगती थी चैती को। अकेली
घर में बैठे-बैठे, उसको संसार छोड़कर चले जाने की इच्छा
होती थी कभी-कभी।
सन्यासी के घर पहुँचते ही वह बोलने लगती थी “समझा,
तू और
कहीं मत जा, तुम्हारे बगैर मैं बड़ी अकेली हो जाती
हूँ, रे !”
“अरे,
कैसे
होगा ? काम तो अभी आधा ही हुआ है। विदेशों से
प्रतिनिधि भी जल्दी ही आने वाले हैं।”
सन्यासी बहुत थक गया था। चैती की बातों से चिड़चिड़ा जाता था। बोलता था “मुझे खटना क्या अच्छा लगता है ?
मूझे
पीठ और कमर झुकाने पर कष्ट हो रहा है। बड़ा कष्ट! तुम मेरा खाना-पीना, कष्ट के बारे में तो समझने की कोशिश करती नहीं। केवल झगड़ा ही करती रहती हो।”
चैती की आँखों में आंसू भर आते थे. कहती थी “तुम्हारी माँ से मैं पुछूंगी। तुम्हें
इतना कष्ट क्यों दे रही हैं ?”
एक दिन सन्यासी बोला “चल न चैती, मेरे साथ मिलकर काम करना। काम भी जल्दी खत्म हो जायेगा। जल्दी खत्म होगा, तो मुझे वहाँ और जाना भी नहीं पडेगा।”
उसकी बात सुनकर चैती का शरीर काँप उठा “क्या बोला ? घर में दो-चार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें खींच दे रही हूँ, तो क्या आँफिस में जाके काम करुँगी ?
मुझे
ऐसे काम के लिये आगे से मत बोलना।”
चैती सोची थी कि सन्यासी उसकी बातों को मान जायेगा। लेकिन सन्यासी तो जैसे
जिद्द कर बैठा। “तुम मेरी गुरु हो, समझी लोग तुम्हारी तारीफ करेंगे,
वाह-वाही
करेंगे। असली जादू तो तुम्हारे हाथों में है। तुम जाओगी तो देखोगी। वहाँ लोग कैसे
तारीफ करते हैं ? तुम्हारी तारीफ होने से मेरा सीना गर्व
से फूल उठेगा। कल चलेगी न, तुम मेरे साथ ?”
चैती सोच रही थी कि सन्यासी उसके साथ मजाक कर रहा है। उसको क्या मालूम था वास्तव
में सन्यासी उसको ले जाना चाह रहा है। जब उसको पता चला कि सन्यासी, सही में उसको सभागार ले जाना चाहता था। तो उसका पूरा शरीर काँप उठा। लग रहा
था कि कहीं बुखार न आ जाये। उसे ऐसा लग रहा था कि रात को घर छोड दें। लेकिन
सन्यासी को छोड़कर वह कहाँ जायेगी ? उसका सन्यासी के अलावा और कौन है ? उसका बाप फिर क्या उसको घर में रखेगा ?
बस्ती-बिरादरी
वाले उसको मारने नहीं दौड़ेंगे ? सन्यासी को छोड़, और कौन उसको इतने प्यार के साथ रखेगा ?
रात को नौ या दस बजे के आस-पास चैती को दस्त लगने लगी। पाखाना दौड़ते-दौड़ते
उसके हाथ-पैर सब शिथिल हो जा रहे थे। सन्यासी आश्चर्य-चकित रह गया। अचानक चैती को
यह क्या हो गया ? पूछने लगा “आज क्या क्या खायी थी, चैती ?”
दौड़ पड़ा
था मिशन डिस्पेन्शरी में। कुछ दवाईयाँ,
टेबलेट
लेकर लौट आया था। दवाई खाने से भी दस्त रुक नहीं रहा था। चैती निस्तेज होकर आँखे
पलटकर पड़ी हुई थी।
“तुम्हें अस्पताल ले जाना होगा। और अब
मेरे वश की बात नहीं है।”
“अस्पताल ? वहाँ तो सुई लगायेंगे। मैं नहीं जाऊंगी वहाँ। मुझे इतना तंग क्यों कर रहे
हो ?”
“मैं तुम्हें तंग कर रहा हूँ या तुम
मुझे कर रही हो ? खैर,
छोडो इन
बातों को। पहले मुझे देखने दो, डाक्टरको कैसे खबर की जाये ?”
“भले,
मैं
यहाँ मर जाऊँगी, पर अस्पताल नहीं जाऊँगी।” चैती कुं-कुं कर रोने लगी। और वह क्या बोलेगा, बुद्धु लड़की को। सुई से डरकर मौत को बुला रही है। अकेला आदमी किसके भरोसे
छोड़कर जायेगा अस्पताल, वह समझ नहीं पाया। भगवान को याद करने
के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। अंत में बोला था “मैं थक गया हूँ, मैं और कुछ भी नहीं कर पाऊंगा।”
आधी रात को धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी चैती,
उसकी
दस्तें रुक गयी थी। और पाखाना नहीं जाना पड़ रहा था। सन्यासी के स्पर्श से उसकी
आंखों में नींद आ गयी थी। चैती के पाँव को सहलाते हुये न जाने कब से वह भी नींद के
आगोश में आ गया था।
सवेरे नींद से उठते समय, उसने देखा कि सूरज सिर के ऊपर था। पास
में चैती नहीं थी। कहाँ गयी ? देखने उठता है, तभी चैती वहाँ धोकर भीगे हुये बालों को सुखा रही थी, एक तौलिया लेकर। सन्यासी को देखकर पूछने लगी “तुम आज स्कूल नहीं जाओगे ?”
“हाँ,
स्कूल
तो जाऊँगा, पर तुम्हारी तबीयत कैसी है ? पहले बता।”
“ठीक है।”
छोटा सा
उत्तर दिया था चैती ने।
सन्यासी अपनी दिनचर्या से निवृत होने के बाद एक घंटे के अंदर तैयार हो गया।
दोनों ने दो-दो रोटी खायी। गांव में रहने पर नाश्ता क्या चीज होती है ? उनको पता भी नहीं था। शहर का था अदब-कायदा,
जरा अलग
हटकर। सवेरे नाश्ता, दोपहर को लँच, शाम को फिर एक हल्का नाश्ता,
फिर रात
दस बजे तक बैठे रहो डिनर के लिये। ऐसा तीन-चार बार खाने का अभ्यास नहीं था चैती
को। अभ्यास क्या, एक समय का खाना मिल जाने से, जहाँ दूसरे समय के खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं होता था वहां तीन-चार बार
खाने की बात तो, सपने जैसे लगती थी।
जब सन्यासी अपना झोला तैयार कर रहा था,
चैती
साड़ी पहन कर दरवाजे पर हाजिर हो गयी। सन्यासी को आश्चर्यचकित देखकर उत्तर दी थी “ऐ! ऐसे बुद्धु की तरह क्या देख रहे हो ?
मैं भी
तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ काम करने।”
“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। अभी रहने
दो। मैने तो ऐसे ही मजाक में कह दिया था। तुम घर में रहो। कुछ बनाकर खा लेना। मेरा
इंतजार मत करना।”
“नहीं,
नहीं, मैं भी चलूंगी। जल्दी, जल्दी काम निपटा लेंगे। अकेले तुम
कितने दिनों तक उसको करते रहोगे ?”
बात करते-करते अनायास ही सन्यासी के मुंह से निकल पड़ा था, लेकिन वह अपनी बीवी को लेकर आँडीटोरियम में काम करना नहीं चाहता था। मगर
चैती जिद्द करके उस दिन उसके साथ गयी थी।
सभागार में खूब सारे लोग थे। चैती को शर्म लग रही थी। सन्यासी के साथ चैती
को देख अन्य कार्यकर्ताओं को भी ताज्जुब हुआ।
चैती ने देखा कि दीवार पर आधा काम हो गया था। लेकिन चित्र जीवंत नहीं लग
रहे थे। उसके दादाजी की तरह सन्यासी नहीं कर पायेगा। उसका मन दुःखी हो गया। इतना
बड़ा काम हाथ में लेकर सब गड़बड़ कर दिया है। शबर लोगों के तीर और पतले होने चाहिये
थे। कुत्तों के मुँह अगर थोड़े और खुले होते तो बहुत सुन्दर लगते। एक की पूंछ, दुसरे के मुंह पर नहीं लगना चाहिये था। लेकिन सन्यासी को इतने लोगों के
सामने वह कुछ भी नहीं बोल पायी थी। वह समझ गयी थी कि सन्यासी ने ध्यान से चित्र
नहीं बनाये थे। चित्रों में प्यार कम था। पहले उसको अपने मन में चित्र बना लेने
चाहिये थे। चित्रों में पूरी तरह से नहीं खो जाने से, क्या सही चित्र बनते हैं ?
किसी श्रीधरन के साथ चैती का परिचय करवा दिया था सन्यासी ने। वह आदमी चैती
की तरफ एक बार तिरछी निगाहों से देखकर जाने लगा था। सन्यासी कहने लगा, “इस पन्ने का चित्र को चैती ही बनायेगी।”
श्रीधरन ने बहुत ही असंतोष भरी आँखों से देखा था सन्यासी और चैती की तरफ।
जैसे कि उसे चैती पर कोई भरोसा नहीं था।
“वी कान्ट टेक द रिस्क ”
“ सर,
यह तो
मेरी गुरु है। इसी से तो मैंने यह कला सीखी है।”
श्रीधरन
हँस दिया। बोला “ ठीक है,
तुम लोग
देखो। एज यू लाइक।”
बहुत दिनों के बाद चैती ने पकड़ी थी रंगों की प्लेट और उसमें पड़ी तूलिका। ये
रंग पत्थरों का महीन चूर्ण बना करके बनाया गया था। बहुत दिनों के बाद वह खेल रह
रही थी दीवारों पर, अपने साथ लिये मन-पसंद रंग और तूलिका ।
दादाजी होते, तो खुश हो जाते। मेरी पोती मेरे पढ़ायेे
पाठ आज काम में ला रही है। कतारों में हैं ‘शल्ब’
के पेड़, धांगड़ा-धाँगड़ी, मोर,
तोते।
सभी धाँगड़ों की कमर पतली और सीना चौड़ा होता है।
श्री धरन दूर से देख रहा था उस आदिवासी लड़की को चित्र बनाते हुये।
मंत्र-मुग्ध हो जा रहा था। क्या निपुण कला थी! जैसे कि कोई सितार पर धीरे-धीरेकर
अपनी उंगली चला रहा हो। जैसे कि पुरातत्वविद् घुम रहे हो इधर-उधर, एक सभ्यता की खोज में।
“वन्डरफुल, वन्डरफुल”
सन्यासी हँसकर बोला था “सर,
मैं
पहले से ही बता रहा था।”
दोपहर को सन्यासी चैती को ले गया था,
सभागार
की कैण्टीन में। सभागार से सटा हुआ था एक बड़ा दफ्तर। दफ्तर भर के लोग, बैठकर खा रहे थे कैंटीन में। चैती को शर्म लग रही थी। जैसे कि प्रवेश निषेध
वाली वर्जित जगह में वह घुस आयी हो। बोली थी “चल,
यहाँ से
चलते हैं। इतने लोगों के बीच में नहीं खा सकती।”
“तो क्या भूखा मरोगी ?”
“चलिये,
बाहर
चलेंगे, किसी दूसरी दुकान में खा लेंगे।‘”
“अभी कहाँ जायेंगे? तू ऐसा मत सोच तो। मैं साथ में हूँ ना,
कुछ
नहीं होगा। शहर बाजार जैसी जगहों में कोई किसी को,
न देखता
है, न कोई पूछता है।”
अपने आपको छुपाने जैसी एक किनारे में कुर्सी पर बैठ गयी थी चैती।
“क्या खायेगी ?” पूछा था सन्यासी ने।
“तुमको जो भी अच्छा लगे।”
“तू बता न। यहाँ हमको पैसा देना नहीं
पडेगा। मुर्गा खायेगी या मीट ? देख,
मेरे
साथ यह ‘पास’
है। हम
लोग जो भी खायेंगे, मुफ्त में मिलेगा।”
“क्या हर दिन ?”
“धत्,
पगली !
यहाँ रोज हम लोग काम करते रहेंगे क्या ?
घर नहीं
जायेंगे ?”
शरम के मारे चैती बोल नहीं पायी थी कि वह क्या खायेगी ? जैसे-तैसे कुछ खाकर बाहर निकल आयी थी वह। बाहर आने के बाद, उसको कितना अच्छा लगा था।
फिर दोनों ने सभागार में चित्र बनाये थे। चैती के लिये यह था एक नया अनुभव, नया नशा और नया परिचय। जितना भी डर लगे,
शरम आये, काम तो अच्छा लग रहा था। इंसान के अंदर छुपी हुई प्रतिभा को पहचानता है
शहर। गांव में कौन पूछता है ? गांव में कभी किसी ने तारीफ की है ? पहले-पहले लग रहा था शहर में,
मानों
उसकी ज़ड़े कटी हुयी हो। लग रहा था कि चारदीवारों के बीच उसकी आत्मा कैद हो गयी हो।
ह्मदय हाहाकर करने लगता था। आज पहली बार उसको जीवन,
सहज और
सरल लग रहा था।
शाम के समय दो-चार और लोग आकर पहुंच गये थे। उनके साथ में थे इमानुअल साहिब
व मैरीना मैम साहब भी, वे लोग आपस में अंग्रेजी में कितनी
सारी बातें कर रहे थे। बीच-बीच में हिन्दी में भी बात कर रहे थे। चैती समझ पा रही
थी कि वे लोग उसके चित्र के साथ सन्यासी के चित्र की तुलना कर रहे थे। “चैती के सारे चित्र ज्यादा सुन्दर बने हैं।”
बोल रहे
थे वे सब।
सन्यासी और चैती जुटे हुये थे। जैसे भी हो,
आज काम
पूरा करना होगा। ये दोनों कभी किसी के भला-बुरा कहने में नहीं रहते थे। नहीं रहते
थे देखने वालों के बीच में। ये तो सृजन की बारिश में भीगते रहते थे। तिनका तिनका
जोड़कर, घोंसला बनाने में लगे रहते थे। मिट्टी
की गुफा, बनाने में लगे हुये हो जैसे दो कुम्हार, या फिर संगत में मशगूल दो आधे पागल इंसान,
चारो
तरफ से जिनके गुम हो गया हो जैसे सारा जहां,
सारा
संसार।
लगभग काम पूरा करके वे दोनों वापस आये थे। उस समय रात हो चुकी थी। थकान से
चैती का शरीर टूट कर चूर-चूर हो रहा था। वह समझ पा रही थी, बेचारे सन्यासी ने कितने कष्ट में समय बिताया होगा ? अकेले घर में छोड़कर जाना पड़ता था,
इसलिये
सन्यासी पर कितने बेकार का गुस्सा करती थी वह ! घर लौटते समय चैती बोली थी “ऐसा ठेका वाला काम अच्छा नहीं लगता है,
समय
होता तो तुम देखते कि मैं इडीताल चित्रों की परिधियों को कितने सुन्दर-सुन्दर
फूलों से भर देती।”
चावल पकाने की इच्छा नहीं थी चैती की। सन्यासी बोला “चल, आज होटल में खाना खा लेते हैं।”
“मुझे भूख नहीं है। तुम अकेले जाओ, बाहर से खाकर आ जाना।”
सन्यासी को काफी थकावट लग रही थी। चित्र बनाते समय भूख, प्यास, नींद,
थकान
कुछ भी महसूस नहीं हो रही थी। अभी ऐसा लग रहा था जैसे कि कई दिनों से वह सोया नहीं
हो। घर लौटते समय, रास्ते में ठेला वाले से खरीदकर, दो चाट खा लिये थे दोनों ने।
ताला खोलकर घर घुसते समय सन्यासी बोल रहा था “देखी, काम करने बाहर निकली, कितनी तारीफ मिली ! घर में बैठी रहती,
तो क्या
कोई तारीफ करता ? लोग कह रहे थे कि मेरे चित्रों से भी
तुम्हारे चित्र अच्छे बने हैं, है ना ?”
“उसमें मुझे क्या मिलेगा ? तुम परेशान हो रहे थे, इसलिये मैं साथ गयी थी।”
“इतने दिनों तक वे लोग, मुझे अच्छा कलाकार मान कर सिर पर बैठाये हुये थे, जितना दिन तक उन्होंने तुम्हारे हाथ की कला नहीं देखी। किसी एक दिन के लिये
तू गयी, और उसी में लोगों ने मेरे साथ तुम्हारी
तुलना करनी शुरु कर दी।”
“तुम क्या पागल हो गये हो ? मैं क्यों तुम्हारे साथ लड़ने जाऊँगी ?
तुम
क्या मेरे से कोई अलग हो ?”
“धत्,
पगली।
मैं क्या तुमसे ईष्र्या कर रहा हूँ ?
तेरी
तारीफ सुन कर गर्व से मेरा सीना फूल उठा। तुम तो मेरी सोने की चिड़िया हो।”
“तुम सही बोल रहे हो” हँसी थी चैती।
“ये मेरे पेट में जो पलने लगा है, वह क्या है ?”
पहले तो समझ नहीं पाया सन्यासी,
चैती
क्या बोल रही थी ? बाद में,
चैती के
होठों पर थिरकती मंद-मंद मुस्कराहट से वह समझ गया था कि वह बाप होने जा रहा है।
पुलकित हो उठा था वह एक अदभुत से रोमाँच से,
और
काँपने लगा था उसका सारा शरीर खुशी के मारे।
“तुम ऐसी हालत में काम पर आयी थी ? और एक प्लेट चाट खाकर रह गयी। रुक,
मैं कुछ
बना देता हूँ, तुम्हारे लिये ? तू भी न, चैती,
इतने
दिनों तक बात को छुपाये रखी थी। तुम बहुत नटखट शैतान हो गयी हो।”
जितना गुस्सा उसे चैती पर आ रहा था,
उतनी ही
तरस आ रहा था उसे उसकी असावधानियों पर। सृजन के उस खेल से निकल कर, फिर एक नये सृजन के खेल में मशगूल हो गये थे वे दोनों। दोनों के पास आनंद
ही आनंद। सृजन ही तो आनंद की कुंजी है।
सन्यासी ने चैती को धीरे से अपने सीने से लगाया।
चैती की आँखों में थे समर्पण के भाव। बोलने लगी “कितने दिन हो गये हैं, तेरी बांसुरी को सुने हुये ।”
“एक दिन छुट्टी लेकर जंगल चले जायेंगे।
उस दिन, जंगल में पूरे दिन मैं तुमको बांसुरी
सुनाऊँगा।”
“जा रे,”
“इसलिये तो मैं अभी तक जिंदा हुँ, चैती। नहीं तो, कब का मर गया होता ?”
“सच ?
क्या
क्या सपने देखते रहते हो तुम ?”
“बहुत सारे सपने संजोकर रखा हूँ जैसे
जंगल, जंगल में हमारा घर, घर में अपने माँ-बाप, आस-पडोस,
बस्ती
वाले सभी ......”
जैसा कि किसी ने बंद घर का दरवाजा खोल दिया हो। अंधेरे में मकडियों के जाल, सौंधी-सौंधी सी गंध और पेट के बल सोया हुआ हो उसका बचपन।
उदास होकर दीर्घ श्वास छोड़ी थी चैती ने। चैती के दीर्घ श्वास के साथ घुल जा
रही थी और एक दीर्घ श्वास ।
दोनों एक दूसरे के अस्तित्व को अनुभव करने का प्रयास कर रहे थे और मजबूती
से जकडते गये अपनी बाहों में, एक दूसरे को।
स्रोत में बहते हुये दो मनुष्यों की तरह।
Comments
Post a Comment