नरक कुछ भी नहीं है, जानते हो कृष्णा ? यहां ही स्वर्ग है और यहीं है नरक। जो जैसा करेगा, वह वैसा भरेगा।
आप ठीक कह रहे हो। हम लोगों ने ऐसा क्या पाप किया था जो ऐसे भुगत रहे हैं ?” अनमना होकर कृष्णा बोला।
संसार में आकर किसने पाप नहीं किया है, बता तो ? यह संसार ऐसा ही है। नहीं चाहने पर भी पाप हो जाता है। तुम्हारे शरीर में यह पापी पेट है या नहीं ?”
भूख की तुमने कैसे याद दिला दी ? इस पेट के बारे में कितना कम सोचेंगे, उतने ही सुखी रहोगे।कृष्णा बोलते-बोलते बरामदा से उतरकर धीरे-धीरे झुककर चला गया। अंतरा के सामने था उसका घर। बरामदा में बैठकर बड़-बड़ाकर भगवान के बारे में असंतोष जाहिर कर रहा था।
अंतरा को भूख लगने से या दुख लगने से भागवत-पुराण के पद्य सुनाने लगता था। कृष्णा को जाते देखकर अंतरा के अंदर भगवत दर्शन के भाव जाग गये। तथा जोर जोर से गाने लगा, ताकि कृष्णा सुन सके।
जिन्ह हरि भगति ह्मदय नहीं आनी
जीवत शव समान तेई प्राणी।
जो नहीं करई राम गुन गाना
जीह सो दादुर जीह समाना ।।
गाना सुनकर कृष्णा का चिड़चिड़ापन दुगना हो गया।
छोड़ो, इन बेकार की बातों को।
कृष्णा को पार्किन्सन की बीमारी थी। हाथ, शरीर हर समय थरथराता रहता था। इसलिये छोडो बोलते समय लग रहा था कि नफरत से हरिनाम की उपेक्षा कर रहा हो। क्यों वह हरि का नाम लेगा जब हरि उसे दो वक्त की रोटी नहीं दे पाता है ? उसका सिर जोर-जोर से ऐसे हिल रहा था जैसे नहीं, नहीं, कुछ भी नहीं। ईश्वर नहीं, नहीं-नहीं की दुनिया में न कोई सुख है, और नहीं कोई प्राप्ति। अपना यहाँ कोई नहीं है। जो भी देख रहे हो, वह कुछ भी नहीं है।
कभी-कभी अंतरा को लगता था कि गांव के सब लोग एक से बढ़कर एक पापी है। जैसे ब्राज के सारे ग्वालें पिछले जन्मों में ऋषि-मुनि थे, वैसे ही वे लोग सभी पापी है। उसके जैसे ही सभी ने कुछ न कुछ पाप किया है। इसलिये ये सब कष्ट पा रहे है। केवल शुरुकानी, नुरीसा, कलंदर जैसे कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी दुःख पा रहे हैं।
पाप की बात उठने से अंतरा को याद हो आती है एक सफेद छबीली गाय की। ओह ! कितना कष्ट था ? लेकिन अंतरा ने उस जीव को कष्ट-मुक्त कर पुण्य किया था या पाप ? अगर पुण्य होता तो उसे सुख मिलता। पाप-पुण्य का आकलन करना उसके बस की बात नहीं थी। कभी गुरु हरिदास मठ में जायेगा तो, वहाँ धनदास बाबा को पूछेगा, उसने वह पाप किया था या पुण्य ? बाघ, हिरण को खाने से अगर पाप होता है तो वह भी पापी है।
जीवन में इतने सारे दुखों को देख अंतरा को गुरु हरिदास आश्रम में जाने को कई बार मन हुआ था। लेकिन उसके गले में बंधी हुई थी सरसी। बेचारी, आधी पागल ! किसके भरोसे छोड़कर जाता ? सरसी अभी तक निराश नहीं हुई थी। आशाओं को लिये बैठी थी कि उसके सभी बच्चे एक दिन लौट आयेंगे। क्या उसके बच्चे किसी चिडिया के बच्चेे हैं ? जो पंख लगते ही फड़फड़ा कर उड़ जायेंगे। आदमी के बच्चे हें। किसी भी हालत में वे लोग लौटेंगे जरुर, अपने पुश्तैनी घर को। आधी-पगली सरसी जंगल में खोजती थी कलेक्टर को। बोलती थी उसके सन्यासी को जंगल पिशाचनी ने किसी पत्थर की माँद के भीतर छुपा कर रखी है। जंगल के अंदर पुकारती रहती थी सन्यासी, सन्यासी। अंतरा को तो कभी अचरज होता था, किसिंडा में रहमन मियां के गोदाम से सटे आधे कमरे वाला घर में बिताये हुये वे दिन ! कैसे साफ हो गयी सभी यादें उसके दिमाग से ? न उसे दिन का पता चलता था और न ही किसी रात का। सब करती थी, धरती थी। काम में इतना व्यस्त थी कि वह भूल जाती थी कि उसके बच्चे, जो इधर-उधर चले गये,उसको छोड़कर।
खास लड़की को ढूंढने के लिये सरसी रोज पैदल पाँच-छः किलोमीटर रास्ता तय करती थी, किंसीडा जाने के लिये। रहमन का कोई काम हो न हो, अपने मन से काम करती। कुछ नहीं होने से गोबर लाती, आंगन में लिपती। जो जितना भी समझायें, नहीं समझती थी। बोलती थी- मुराद ले गया उसकी बेटी को। कभी-कभी अंतरा को भी ऐसा ही लगता था। लेकिन वह तो मुराद को जानता तक नहीं था।
सरसी उसके मँझले बेटे को कभी याद नहीं करती। लेकिन बेटा डाक्टर की याद आने से मन में टीस-सी उठती। फोरेस्ट-गार्ड के ऊपर उसको गुस्सा आता। लडके को प्रलोभन दिखा कर ले गया, और ऐसा कौनसे मुल्क में छोड दिया, जो अंतरा अभी तक उसका अता-पता भी मालूम नहीं कर सका। पोलिस में रिपोर्ट लिखवाने कई बार गया था, लेकिन पुलिस थाने जाने में उसको डर लगता था। उसके पास तो इतना रूपया-पैसा भी नहीं, जो वह फोरेस्ट-गार्ड के विरोध में लडेगा।
लड़का गांव छोडकर जाने से पहले कुछ कमाता था बिलासिंह के ट्रक में हेल्परी का काम करके। कहता था, “एक महीने में वह गाडी चलाना सिख जायेगा ड्राइवर के साथ इस बारे में बात किया है। ड्राइवर बोला है डेढ हजार रुपया खर्च करने से वह लाइसेंन्स भी बनवा देगा।शायद एक साल ही हुआ होगा, उसके हेल्परी का काम करते। रात को बिलासिंह का ट्रक जंगल में घुसता था। आधी रात को लकड़ी लादकर लौट आता था उसके नुआपाड़ा गोदाम में। हफ्ते में एक दिन डाक्टर घर आता था। उसकी मजबूत बांहे और पिंडलियाँ देखने से अंतरा को अपनी जवानी याद आ जाती थी. उस लडके में वह अपने-आपको देखता था। उसके जैसा ही दिलदार, हँसीमजाक करने वाला व खुशमिजाज था। पगार के दिन, दोनों भाई-बहिनों के लिये कुरता-पैण्ट, माँके लिये स्टील गिलास, लोटा व बाप के लिये गमछा, नहीं तो बीड़ी-बंडल लेकर आता था। कोई देखेगा तो बोल नहीं पायेगा कि सतनामी लड़का है। आधा पैसा खुद रखता था और आधा पैसा माँ को दे देता था।
पता नहीं कैसे ? फोरेस्ट-गार्ड के बहलाने-फुसलाने में आ गया। जब देखो, तब उसके साथ घूमता था। उससे सिगरेट माँगकर पीने लगता था। डाक्टर ने कभी दारु नहीं पिया था। लेकिन आजकल, जब देखो, कलंदर किसान की दुकान पर पड़ा रहता था।
अंतरा और सहन नहीं कर सका। कितने दिन वह और सह सकता भी ?
कमाने वाला लड़का काम-धाम छोड़कर गांव में पड़ा रहेगा तो ! उसकी जीभ अकुलाने लगी थी पूछने को। एक दिन उसने पूछा भी।
तू ड्राईवरी सीख रहा था न, क्या हो गया ?” कुछ भी जबाव नहीं दिया था डाक्टर।
लाइसेंस बनाने वाला था, क्या हुआ ?”
डेढ़ हजार तुम दोगे क्या ? लाइसेंस बनाने के लिए।
क्यों, तुम्हारे पास तो पैसे थे, क्या किया उनका ? काम-धाम छोड़ कर बैठ जाने से क्या डेढ़ हजार रूपया आ जायेगा ? बता तो। तुमने काम करना क्यों छोड़ दिया ?”
तुम मेरे पीछे क्यों पड़े रहते हो ?”
वह जो फोरेस्ट-गार्ड है, उसने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया।
उसको क्यों दोष दे रहे हो ? मुझेे बिला ने पैसा नहीं दिया, उल्टा खूब मारा-पीटा भी। बोला था -साले चमार ! चोर साला ! भाग यहाँ से।
क्यों तुमको क्यों चोर बोला ? तुमने कोई चोरी की थी क्या ?”
मैं क्या चोरी करता ? बाप रे ! मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं। वह जानें। क्योंकि यहीं उसका धंधा है। मुझे बोला, चमार साले ! मेरे धर में क्यों घुसा बे ? मैं क्या सरकारी नौकरी कर रहा था, जो अपनी जाति-गोत्र लिखवाता। उसने तो मुझे सामान पहुँचाने भेजा था। मैं गया तो उसमें मेरा क्या कसूर ?”
कैसा सामान तुम पहुँचाये थे ?”
तुम जैसा सोच रहे हो, वह ऐसा सामान नहीं था। साला, मुझे लकडी-चोर कहा।
क्यों ?”
उसका ड्राइवर ने छुपा कर ढाबे में लकड़ी दी थी। उसमें मेरा क्या दोष ? क्या बिला चोर नहीं है ? क्या वह पूरे जंगल की चोरी नहीं कर रहा है ?”
सब तो चोरी कर रहे है, पर तुमको क्यों चोर बोला ?”
तुम क्या पुलिस हो ? इतना सवाल-जवाब, पुलिस जैसा, क्यों कर रहे हो ?”
नहीं, नहीं, अगर ड्राइवर ने लकड़ी चोरी की तो उसको पकड़ता। फिर तुमको क्यों पीटा ?”
साला, ड्राइवर बड़ा चालाक ! बिला को बताया कि जब वह एक गिलास दारु चढ़ाकर नींद में सो गया था। तब हेल्पर को सब देखभाल करना चाहिये था। लेकिन उसने क्या किया ? उसे नहीं पता।
क्या बिला सिंह उसकी बातों में आ गया ? इतने बड़े लकड़ी के लट्ठे को तुमने अकेले खिसका दिया ? इस बात का उसको वि·ाास भी हो गया ? चलो, तुम, नुआपाड़ा चलते है, मैं खुद उसको पूछुँगा। अगर जरूरत पड़ी तो उसके हाथ-पैर भी पडूंगा। फिर तुमको काम में लगा कर आऊँगा।
तुम अगर ऐसा करोगे, तो मैं उस घर को छोडकर भाग जाऊँगा।
तुम ऐसे पागल जैसे क्यों हो रहे हो ? मेरे बेटे। मैंने ऐसा क्या कह दिया ?”
बेटे की बात सुनकर अंतरा के हलक सूखने लगे। क्या हो गया? किसकी नजर पड़ गयी उसके बेटे के उपर, उसकी दुनिया के उपर ? सारे पुराने दुखों को वह भूलने लगा था। क्या कलेक्टर की तरह, डाक्टर भी घर छोड़कर चला जायेगा। उसका मन नहीं मान रहा था, उसे विश्वास नहीं हो रहा था। जरूर, उसके पीछे कोई बात है, कोई राज।
अंतरा को याद हो आया कि कुछ दिन पहले हाथ की घड़ी व एक जोड़ी जूता खरीद कर लाया था डाक्टर। कैसेट लगाकर गाना सुनने वाला टेप-रिकार्डर भी था उसके पास। उतना पैसा कहाँ से पा रहा था वह ? एक बार भी उसके मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं पैदा हुआ था। वरन् लड़के की इस सफलता में गर्व अनुभव कर रहा था। कह रहा था- एक साईकिल खरीदेगा। उसकी माँ कहती थी साईकिल बाद में खरीदना, पहले छत के लिये खप्पर खरीदूंगी, पैसा दे।
तो क्या सच में उसके बेटे ने चोरी की थी ? बिला सिंह की बात सच है ? पता नहीं, क्यों विश्वास नहीं हो पा रहा था अंतरा को इस बात का ? सभी बेटे उनकी माँ पर गये थे। छल-कपट वे बिलकुल ही नहीं जानते। भले ही, भूखे मर जायेंगे, पर चोरी-चकारी कभी नहीं करेंगे। साला, धोखेबाज ड्राइवर ने उसके बेटे को फंसा दिया है।
उसके साथ ही ऐसा क्यों होता है ? कलेक्टर को लेकर कितने सपने बुनता था ? लेकिन वह लड़का किस परदेश में रहता है, उसका चेहरा भी कितना बदल गया होगा ? इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पाता। सोचा था कलेक्टर बदल देगा उसके घर को। लेकिन नहीं हो पाया। डाक्टर, उसका बड़ा चहेता ! कितना अच्छा काम-धंधे से कमाकर खा रहा था, और एक ही साल में घर का नक्शा बदल देता। लेकिन यह भी नहीं हो पाया।
उस समय अंतरा पहाड़ को भी चूर-चूर करने का दम रखता था। एक दिन में ही पाँच गांवों में घूम आता था। उसके उपर रहमन मियां का बड़ा भरोसा था। अंतरा जो कहता था, वह मियां मान लेता था। काम धंधा करने से पैसा तो आयेगा ही आयेगा। शाम को जब अंतरा घर लौटता था, तो सरसी घर-आंगन लिपा-पोती कर, दीवारों पर चित्र बनाकर खुद देवी जैसी बैठी रहती थी।
क्या तुम दिन और रात मिट्टी छापती रहोगी, चित्र बनाती रहोगी ? और कोई तेरा काम-काज नहीं है क्या ?”
क्या काम करुँगी ? क्या धान और चावल से मेरा घर भरा हुआ है, जो उसी काम में लगी रहूंगी ?”
हाँ, हाँ, जा, पानी ला, प्यास लग रही है।
चकाचक साफ-सुथरे कांसे के बरतन में पानी लाकर पकड़ा देती थी सरसी। अंतरा अपने खोंसे में से रूपया निकाल कर अपनी माँ के सामने रख देता था। और इसके बाद हाथ-पाँव धो-धाकर घर में घुसता था। साथ में लायी हुई एक जोड़ी मोती की माला या दो लड्डू पकड़ा देता था सरसी को। और बोलता था अगर तू, किसी और से शादी की होती, तो ऐसा लड्डू खाती क्या ?”
मुंह मोड देती थी सरसी।
साड़ी क्यों नहीं खरीद लाया ?” बोलकर मुंह फूलाती थी। उसके पहनी हुई साड़ी फटने लगी थी। अंतरा अगर मेहनत कर खून-पसीना एक कर दें, तो भी इतना पैसा नहीं कमा पाता कि चाहने से एक साड़ी खरीद पाता। सरसी का मन रखने के लिये कहता था अगले हफ्ते किसिंडा हाट में से एक अच्छा साड़ी खरीदूँगा तुम्हारे लिये ? तुम नाराज मत हो। तुम्हारे नाराज होने से मुझे क्या अच्छा लगेगा ?”
उसका चहेता बेटा तो उससे ज्यादा कमाता था। उसके भाई-बहिनों के लिये कुरता खरीद सकता था। हाथ के लिये घड़ी भी खरीदा था। सब सुख-दुख में समय बिताते हैं। सुख हमेशा के लिये नहीं रहता है, उसका भी कहाँ रहा ? जिस दिन से मानो उसने पाप किया, उसी दिन से उसे सुख छोड़कर चला गया।
पाप नहीं तो और क्या ? एक बार रहमन मियां के गोदाम से लौटते समय उसने देखा, कि हाट लग चुकी थी। उसको तो साग-सब्जी का कोई जरूरत नहीं थी। न उसे किसी पोगा रस्सी की जरूरत थी, न सरसों की, न हीं मांडिया की। उसका मन तो एक साड़ी खरीदने में लगा हुआ था। एक तरफ दो-चार फेरी वाले बैठे हुये थे। अंतरा जाकर दाम पूछने लगा। एकदम-सा लाल रंग की साड़ी के ऊपर पीले-रंग के फूल पड़े हुये थे। वह छापा-साड़ी अंतरा को खूब पसंद आयी। पटाते हुये दाम आखिरी में खिसका पचास रूपये तक। खोंसा खोलकर देखा तो पचास क्या, उसमें तो पचीस रूपये भी नहीं थे ! साड़ी मन की मन में रह गयी, वह खरीद नहीं पाया। ऐसे ही हाट लगा रहा, पर वह कुछ भी खरीद नहीं पाया।
दो-चार दिन बाद अंतरा लेफ्रिखोल से लौट रहा था, उसकी नजर पड़ गयी झाड़ियों की तरफ। वह रास्ता छोड़कर झाड़ियों की तरफ लपक पड़ा। ये क्या ? किसका है ये ? भगवान ने जैसे कि उसकी पुकार सुन ली। लेकिन बेचारे का मन अभी तक उस साड़ी को भूल नहीं पाया था।
अभी भी अंतरा के आँखों के सामने आ जाता था वह नजारा। उस दिन, उसका शरीर उत्तेजना, खुशी और आशंका से थर्रा रहा था। क्या सोच कर पता नहीं, पाया हुआ धन को छोड़कर वह लौट गया था गांव में। घर पहुंच कर उसे लगा, क्या कोई अपने सौभाग्य को ऐसे ठुकराता है ?
सरसी की तरफ देखने से मन दुःखी हो जाता था। वह साड़ी सरसी के शरीर पर खूब फबती। अगर वह ऐसे ठुकराकर नहीं आया होता तो, एक क्या, दो साड़ियाँ खरीद सकता था सरसी के लिये।
सरसी ने देखा, मन ही मन में अंतरा कुछ कह रहा था। क्या हो गया है उनको ? साड़ी माँगकर क्या कोई भूल कर दी उसने ? गरीब आदमी पेट और घर के लिए जुगाड़ करते-करते बेचारे के दिन, महीने, साल गुजर जाते हैं। सुविधा होती तो, क्या एक साड़ी नहीं खरीद लेता ? सरसी ने पूछा -
तुम ऐसा क्या सोच रहे हो ? चेहरा सुखकर चने की तरह हो गया है।
क्या और सोंचूगा ?” अनमना होकर अंतरा ने उत्तर दिया। बोलते-बोलते घर से बाहर निकल गया था. मन ही मन बहुत पछता रहा था। पता नहीं, क्या हुआ होगा ? और क्या वह उसके इंतजार में वहाँ पड़ी होगी ? कितना बुद्धु काम किया उसने छिः! छिः! हाथ में आयी हुई चीज क्या कोई एसे छोड़ देता है ?
आकाश से उस समय अंधेरा नीचे उतर रहा था। दुखी मन से अंतरा कलंदर किसान की दुकान तक गया था। पैसा देकर बोला, “दे, तो कलंदर, एक गिलास देशी दारु, दे। अच्छा, अच्छा एक बोतल दे, दे।
कहीं कोई भैंस उठाया था क्या ?”
चौंक गया था अंतरा, जैसे कि उसके अंदर की बात को कोई जान गया हो। हाँ, हाँ, ना, नाकहते-कहते वह थतमता गया था। अपने आपको सँभाल कर फिर बोला, “दे, ना, यार, बेकार की बातें क्यों कर रहा है ? एक भैंस उठाने से पाँच-सात आदमियों में बँटवारा होता है। उसमें से फिर कितना मिलेगा ? जो तू पूछ रहा है।
कलंदर को पैसा मिला था। दारू क्यों नहीं देता ? एक गिलास के बदले में एक बोतल देने से उसको दुगुना फायदा। एक बोतल दारु के साथ, तीन ऊँगलियों से, चार-छः चने उठाकर पत्ते में मोडकर फेंक दिया था अंतरा के हाथ में। इन चमारों के लिये अलग बोतल रखता था कलंदर। उनको छूने से जाति से बाहर निकाला जायेगा। पर, दारु के व्यापार में जात-पात देखने से, दुकान बंद करनी पड़ेगी।
बहुत तेज चटपटा चने का मजा नहीं ले पाया था उस दिन अंतरा। उडेलते समय दारु भी इतना मजेदार नहीं लग रहा था। केवल पछतावा से मन में उलझने पैदा हो रही थी। दुःखी मन से वह घर लौट आया।
सबसे बड़ी बात, उस दिन वह दारु पीकर बेहोश नहीं हुआ। बल्कि सारी रात उसे नींद नहीं आयी, खाली छटपटाता रहा। पता नहीं, बीच रात में कब आँख लग गई। सवेरे-सवेरे नींद टूट गई। तभी भी सरसी पेट के बल चटाई के उपर पड़ी हुई थी। होश भी नहीं था उसे। अंतरा उठकर बाहर आ गया। तब तक आकाश साफ नहीं दिख रहा था। उसकी माँ, उठकर बरामदे में, नींद के झोंके मार रही थी। अंतरा को बाहर निकलते देख, पूछी थी सवेरे-सवेरे कहाँ जा रहा है रे, तू ? चाय पीकर नहीं जाता ?”
हाँ, हाँ, अभी आ रहा हूँ।
बिजिगुड़ा से लेफ्रिखोल सिर्फ चार किलोमीटर की दूरी पर है। रास्ते भर अंतरा को कितनी चिंता, कितनी फिकर ! पता नहीं, वह लाश होगा भी या नहीं, झाड़ी-जंगल में पड़ी थी। सूरज के शरीर से लाल रंग छुटकर आसमान साफ दिखते समय तक वह पहुँच गया था उस झाड़ी के पास। दूर से दिख रहा था, वह जीव ऐसे ही पड़ा हुआ पेड़ के नीचे। अंतरा के होठों पर छोटी-सी मुस्कराहट थिरक कर फिर चली गई। बडे फुर्ती के साथ ही वह बढ़ गया था उस जीव की तरफ। जाकर मिट्टी के उपर उकडू होकर बैठ गया। नहीं, नहीं, अभी-भी इसमें जान बाकी है।आँखे तरेरते हुये मुंह मोड़कर पड़ी हुयी थी पेड़ के नीचे। भनभनाकर मक्खियाँ घेरे हुये थी उसके मुंह के चारों तरफ। उसका पिछला बायां पैर बीच-बीच में थर्राता था, जो उसके जिन्दा होने का संकेत देता था। कुछ देर बाद फिर शांत पड़ गया था। अंतरा ने खोंसे में से खैनी का डिब्बा निकालकर एक चुटकी मुँह में डाली। खैनी मिला हुआ थूक, दूर की तरफ एक बार थूककर बोला था बेटा, क्यों जीवन को और लटकाकर रखे हो ? जा, जा, निकल जा। तेरे लिये मैं रात भर सो नहीं पाया। दारु का स्वाद भी पानी जैसा लगा !खोंसे में एक बीड़ी निकालकर होठों में दबाई। हठात् उसको याद आ गयी कि पास में माचिस नहीं है। चिनगारी कहाँ से मिलेगी ? मन खट्ठा सा हो गया। होठों में से बीड़ी निकालकर कान के ऊपर दबा दिया अंतरा ने।
खूब धीरे से छुआ था उस जीव को। अभी नीचे दबा हुआ दाहिना पैर भी छटपटाने लगा। हे !... ऐ!... बे!..कितना खेल रहा है ? जाना है, तो जल्दी जा। मैं और कितना देर तक यहाँ इंतजार करते रहूँगा। साले, को दबा दूँगा जो एक बार में सारी नौटंकी भूल जायेगा।
पता नहीं, क्यों कुछ देर बाद अंतरा को डर लगा छिः! छिः! लोभ में आकर वह पाप करेगा ? इतने बड़े जानवर की जान ले लेगा ? भले, वह इस जानवर का मांस खाता है। मगर कभी इस जानवर के उपर हाथ नहीं उठाया है।अपने आप में बड़बड़ाते हुये बोला था अंतरा, जैसे कि उसकी ये बातें ऊपर वाले के लिये ही हो। हाँ, अंतरा गाय का मांस खाता जरुर था, पर उसने कभी गाय को मारा नहीं था। उनकी बिरादरी में कोई-कोई गायों को मारते भी है। मगर अंतरा ऐसा कोई काम नहीं करता था। जो भी हो, गाय माँ के जैसी है। इंतजार के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं था। किसकी यह गाय है ? कोई इसे क्यों ढूंढने नहीं आता है ? इस जानवर को साँप ने काट लिया है क्या ? साँप काटने से मुँह से भर्रा-भर्राकर झाग निकल रहे होते? इसके बदले, इसकी आखों से आँसूओं की धारा बह निकली थी। आँसूओं को देखकर प्यार से सहलाया था उस जानवर को, अंतरा ने अहा, रे ! कष्ट हो रहा है क्या ?” बीमारी हो गयी है तुमको, जो मुंह मोडकर पड़ी हो। जब गाय का मालिक आयेगा तो उसे यमदूत की भाँति वहां बैठा देखकर, क्या सोचेगा ? उसको चोर-चांडाल समझकर मारने-पीटने लगेगा।
अभी भी इसकी जान क्यों नहीं जा रही है ? अंतरा ने पत्थर से नीचे उतर कर गाय के नाक के पास हाथ रखा था। साँसे अभी भी चल रही थी। शरीर के किसी कोने में उसकी जान अभी तक अटकी हुई थी।
अगर यह गाय अभी मर भी जाती है, तो कैसे वह अकेले उसको ले जा पायेगा ? अगर आस-पडोस वाले, दोस्तों को बुलाता हूँ, तो रूपया हजार हिस्सों में बँट जायेगा। गाय को इस हालत में छोड़कर नहीं जा सकता था। अभी भी उसके प्राण-पखेरू बचे थे शरीर में। देखते-देखते ही यह प्राण-पखेरू कब उड़ जायेंगे, पता नहीं। कितने समय तक पड़ी रहेगी यह मुर्दा लाश ? सड़कर चारों तरफ बदबू फैलने लगेगी। बिरादरी वाले अपने आप यहाँ आ जुटेंगे बिन बुलाये।
अंतरा बड़े ही असंमजस की स्थिति में था, आस-पास की पत्ते-डाली लाकर उसे ढ़क दिया, ताकि उस पर किसी की भी नजर न पड़े। सूखी हुयी झाड़ियाँ, लकड़ी की कूछ डालियाँ काटकर रख दी थी उसके ऊपर।
उसने गाय के ऊपर इतनी पत्तियाँ डालियाँ रखी थी कि बाहर से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। गाय के अभी तक प्राण-पखेरू निकले नहीं थे, उसको उसने ढ़क दिया था, कहीं वह पकड़ा तो नहीं जायेगा ? हो सकता है लौटते समय गाय का मालिक छुप कर बैठा हो, उसको रंगे-हाथों पकडने के लिये।
अंतरा जानता था कि इतना जल्दी मुरदे शरीर से दुर्गंध नहीं फैलेगी। जबकि गाय जिंदा रहने से, वह पकड़ा भी नहीं जाता और उसे चोर भी नहीं कहता कोई। अगर गाय मर जायेगी, तो उसको उठाने के लिये उसे ही तो बुलाया जायेगा। बड़े द्वन्द में था अंतरा। पाप-पुण्य। सत्-असत्। इतना दिनों से कमाये हुये नाम को डुबा देगा, और उसे लोग चोर कहेंगे। नहीं नहीं, ऐसा नहीं करेगा। अंतरा ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया। गाय के मुँह पर से डाली-पत्ते हटा दिया था। और कहने लगा था
तेरा जीवन बड़े कष्ट में है ! जा, तुझे मुक्त करता हूँ।और धड़ाम से उस पत्थर को दे मारा उसके मुंह पर। गाये की टांगे खींच गयी थी। जोर-जोर से थरथरा उठी थी वह। कान हिल रहे थे फूल की पंखुडियों की भाँति। उसके बाद सब स्थिर हो गया। साँसो की गति रूक गयी थी। साँसे न आ रही थी, न जा रही थी। उसकी जीवन-लीला हमेशा हमेशा के लिये समाप्त हो गयी थी।
पत्थर से गाय को मारकर, धड़ाम से नीचे बैठ गया था अंतरा। उसका शरीर ऐसे काँप रहा था, जैसे उसने किसी मनुष्य को मार दिया हो। पहाड़ों को चूर-चूर करने वाली ताकत उसकी, अब खत्म हो गयी। पसीने से वह तरबतर हो गया था। कितने जानवरों की चमड़ी उधेड़ी थी, कितने जानवरों के सिंग काटे थे, कितने गाय के मांस के लोथड़ो को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर भविष्य के लिये सूखाये थे, तब भी उसका मन कमजोर नहीं हुआ ता। भरी जवानी में भी बुर्जुग लोगों की तरह पश्चाताप की आग में झूलस गया था वह। आह रे !जब तक गाय के प्राण बचे हुये थे, दवा-पानी करने से वह गाय दौड़ पड़ती, सोच रहा था अंतरा। अपने स्वार्थ के खातिर क्यों उसने एक निरीह प्राणी को मार दिया ?
उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह पाप में डुब गया हो। उसकी माँ कहा करती थी कि छोटे से छोटे छेद से भी शनि प्रवेश कर जाता है। एक बार जब शनि घुस जाता है, तो फिर अपनी काया का विस्तार कर लेता है। शनि उसको पैर से सिर तक जकड़ लिया था। माँ कहती थी - शनि की छाया पड़ने से अनिष्ट कार्य अपने-आप हो जाते हैं। बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। ब्रााहृण भी चांडाल हो जाते हैं। वह तो चांडाल, गरीब है। फिर भी लोग क्यों कहते है कि ब्रााहृण चांडाल हो जायेगा? इसका क्या मतलब है ?
अंतरा पत्थर पर से उठकर खड़ा हो गया था। उसे मरे हुये जानवर को पहले की भाँति ढँक लिया था। उसका मन क्यों दुखी हो रहा है ? चींटी और हाथी के जीवन में कोई अंतर है क्या ? चींटी मारने से पाप नहीं लगता, हाथी मारने से पाप ! गाय को तो कष्ट हो रहा था। उसको तो मुक्ति दिला दिया। इसमें सोचने की क्या बात ? अंतरा ने अपने खोंसे से खैनी का डिब्बा निकाल कर एक चुटकी खैनी मुंह में डाली। इसको तो पार करना ही पड़ेगा। एक और कंधे की जरूरत है। किसको बुलाया जाये ? बात फैल नहीं जायेगी तो। बस्ती भर के सब लोग आ नहीं जायेंगे। सभी लोग तो भूखे हैं। वह अपने साथी, रिश्तेदारों को किसको भी नहीं बोलेगा। गाय या तो बीमार थी, या साँप ने काट लिया था, वह गोश्त को भले ही बाहर फेंक देगा मगर किसी को भी नहीं बुलायेगा। उसे तो दिख रहा था केवल वही लाल-पीली छापा-साड़ी। पैसा बच जाने से एक जोड़ी पायल भी खरीद देगा। दिखा देगा सरसी को, उसका भर्तार कैसा आदमी है ?
अंतरा मरे हुये जानवर को ढककर घर आ गया था। सरसी उसको देखकर चकित रह गयी थी। कल से अंतरा का मुंह सूख कर काला पड़ गया था, भोर से उठकर, वह कहाँ चला गया था जिसका कोई भी अता-पता नहीं ? पागल की तरह वह क्यों हो रहा है ? उसको क्या हुआ है ? कुछ बोलने से पहले ही अंतरा ने बोलना शुरु किया घर में कुछ है क्या ? दे तो, खाऊँगा, कुछ।
सरसी के पेट में कलेक्टर आठ महीने का था तब। भारी पाँव होने से वह धीरे-धीरे चल रही थी। उठकर तुरन्त कुछ काम नहीं कर पाती थी। अंतरा बोला तुम बैठो, मैं जाकर देखता हूँ, घर में खाने के लिये क्या-क्या चीजे रखी है ?”
सरसी ने उसकी बात नहीं मानकर खुद पखाल ले आयी थी। लहुसन और हरी मिर्चों को सिल से पीसकर चटनी बनाई थी। सुबह-सुबह कहां चले गये थे ? बताकर नहीं जाते ? तुमको ऐसा क्या हो गया है, बताइये तो ?”
मुझे क्या हुआ है ? काम करने भी नहीं जाऊँगा क्या ?” वह सोच रहा था कि उसकी पत्नि के पाँव भारी थे, और ऐसा जघन्य दुष्कर्म उसने कर डाला। भगवान ने चाहा तो सरसी को सब ठीक-ठाक से हो जायेगा। भगवान उसके पापों का भागी सरसी को न बनायें।
अंतरा ने पूछा तुम्हारे पास एक सवा रूपया हो, तो दोगी क्या ?” अपने होने वाले बच्चे के खातिर कुछ पैसा बचा कर रखी थी सरसी। अंतरा को देखने से लग रहा था कि वह किसी विपदा में है। सरसी ने किसी छुपी हुई जगह से निकाल कर दी थी दो रूपये।
हड़बड़ाकर निकलते समय झोले में अपने कुछ औजार लेकर निकला था। विस्मित हो गयी थी सरसी के आँखे। यह आदमी तो ऐसा बिना बताये कभी कहीं नहीं जाता है। उसके साथ ऐसा हुआ क्या है ? बस्ती में से और कोई जा रहा है कि नहीं ? किसको पूछेगी, वह तो नयी-नवेली वधू थी।
नुरीशा के दुकान से आधा कट्टा बीड़ी खरीदते समय चमरू मिला था। चावल खरीदने आया था वह। एक बार अंतरा का मन हुआ था कि वह चमरु को भी साथ ले जायेगा। यह तो एक अकेले का काम नहीं है। अगर चमरू बात को इधर-उधर बोल देगा तो भविष्य में कोई उसका साथ नहीं देगा। पाप वह करेगा, और भाग लेंगे सब।
फिर पांच कोस रास्ता तय करना पडेगा। अभी वह जीव कष्ट नहीं पा रहा होगा? उसकी दया से उसको मुक्ति मिल गयी है। कितना तड़प रहा था वह ! कहीं इधर-उधर थोड़ी सी जान अटकी हुई थी इसलिये।
शाम होने से पहले, उसका चमडा उतारना होगा। कदम जरा जोर से बढ़ाने लगा था अंतरा। वह जानवर अभी भी पत्तियों और डालियों से ढ़का हुआ था। कुटी, डाली, पत्ते सभी अलग कर दिया। उसके बाद वह लग गया था अपने पुश्तैनी काम में। गाय की उम्र कम थी, दवा-पानी करने से शायद बच जाती।
सावधानी से चमड़े को काटने लगा था अंतरा। इसको वह तीन सौ रूपयों में बेचेगा रहमन के पास। दोनो सिंग बेचेगा टिटिलागढ़ कारीगर के पास। मांस सड़ने के बाद फिर वह सोचेगा हड्डियों को बेचने की बात। सब पैसों का हिसाब वह जोड़ नहीं पाया। फिर भी उसको लगा जैसे कि वह लखपति हो गया हो।
चमड़ा उतारते समय अंतरा ने देखा कि उसके चाकू की धार तेज नहीं थी। छोटे-से पत्थर पर घिसा था, अपने चाकू को। बहुत सावधानी से काटने लगा था चमड़े को। आह, रे ! यह जानवर जिन्दा होता तो, कूदते-फाँदते छलांग लगाते इधर-उधर घूमता-फिरता। जबकि वह अभी उसका चमड़ा उतार रहा है।
चमड़े को निकालते-निकालते शाम हो गयी। उसने सोचा था कि गाय को एक गड्ढा खोदकर दफना देगा फिर बाद में वह घर जायेगा। दफनाने से दुर्गंध चारों तरफ नहीं फैल पायेगी। लेकिन रात को वह करेगा क्या ? उसके पास न तो कोई फावड़ा है, और न ही कोई गेती। इधर शाम हो जाने से, मच्छर काटना शुरू कर दिये थे। आधा काम करके न तो वह किसिंडा जा सकता था, न ही वह अपने गांव। उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था। आखिरकर सूखे डाल-पत्ते इकट्ठा कर आग लगायी थी। आज रात वह यहीं बितायेगा। नहीं तो, उसकी सारी मेहनत पूरी तरह से बेकार हो जायेगी। लेकिन, इस जंगल में रात-भर बैठा रहेगा वह अकेला। इधर, सरसी चिन्ता में रोना शुरु नहीं कर देगी ? उसकी माँ आस-पड़ौस से कोई मदद नहीं मांगेगी तो ? लोभ में आकर बुद्धि क्यों खराब हो गयी ? उसकी मति क्यों मारी गयी ?
अब कोई उपाय नहीं था उसके पास। खोजबीन करने पर उसे एक छिछले गड्ढे वाली जमीन मिली। घसीटते हुये वह उस गाय को ले गया और डाल दिया था उस गड्ढे में। डाल, पत्ते, मिट्टी, पत्थर, जो भी मिला ढ़क दिया उसके उपर। लेकिन इतनी बड़ी लाश का चार भाग में से एक भाग भी पूरी तरह नहीं ढक पाया था। इतनी कोशिश के बाद भी। दूर से लाल-सुर्ख दिख रहा था उसका उधेडा हुआ शरीर। गाय को इस हालत में छोड़ कर जाने की बात, वह सपने में भी सोच नहीं सकता था। बार-बार वह अपने गांव में जायेगा,, बार-बार बिना किसी को बताये वह यहाँ आते रहेगा, तो लोगों को उस पर कोई न कोई संदेह जरूर होगा. अतः रात यहाँ पेड़ के नीचे गुजार देना ही अच्छा होगा। सवेरे-सवेरे गाय को दफनाकर चमड़ा लेकर चला जायेगा वह किसिंडा। चमड़े को तो न गांव लेकर जा पायेगा, और नहीं किसिंडा। वह कैसे गोरख-धंधे में फँस गया था !
वह आग लगाकर बैठा रहा। कितने सारे चिड़ियों की डरावनी आवाजों के मध्य वह ऐसे ही घिग्घीं बांधकर बैठा रहा। धीरे-धीरे रात ढ़लती गयी। पता नहीं क्यों, उसको लग रहा था, थोड़ी सेवा कर देने से वह गाय बच जाती। घास चरने लगती। दाना खाने लगती, पानी पीने लगती। बछड़े को दूध पिलाती। उसने लोभ में आकर अपने स्वार्थ के खातिर बहुत बड़ा पाप किया है। भरमार कीड़े-मच्छरों के बीच बैठकर वह पश्चाताप की आग में जल रहा था। एक लाश और एक जिन्दा आदमी पड़े रहे, रात भर एक निर्जन जगह में। कभी नींद का झोंका आया, तो उसके मानस-पटल पर छा गया एक सपना। सपने की फाँक में से गाय। आंसूओ से छलकती हुयी आँखों में तैर रही थी वह गाय।
बता तो, मुझे क्यों मार दिया ?”
निःशब्द हो गया था अंतरा का मन। अंतरा के मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे, जैसे कि वह गूँगा हो गया हो। गाय एक बार फिर उसके छलकते हुए आंखों से पूछ रही थी तुम सच-सच बताओ, मुझे क्यों मार दिया ? मेरी बछड़ी मुझे बिलखती हुई ढूंढ रही है, जानते हो।
अंतरा जैसे कि पत्थर होता जा रहा था।
गाय पूछ रही थी सच-सच बता न, तुमने मेरे को......

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