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बाट जोहते-जोहते थक गये, पर इस साल भी बारिश नहीं आयी। तपती धूप
में जंगल जलता जा रहा था। कभी खुशहाल प्रजा की भाँति घिरी हुई लतायें और झाड़ियाँ
सूख गयी, और जंगल लग रहा था प्रजा-विहिन। एक
जमाने से राजा-जमीदार जैसे खड़े हुए साल,
बीजा, अर्गुन, गम्भारी के पेड़ सब आज दुःखी प्रजा जैसे
श्रीहीन होकर असहाय लग रहे थे। उदंती नदी एक रंगहीन,
रसहीन
प्रौढ़ा औरत के जैसी पैर पसार कर बैठी थी। पूरा इलाका तप उठता था पहाड़-पर्वतों के
लंबी-लंबी सांसों से। मिट्टी में कब से जंभाई लेते मुंह के, जैसी दरारे पड चुकी थी। दूर से पत्थर काटने वालों की ठक्-ठक् की आवाज जरुर
हवा में तैरती हुई आ रही थी मगर, यह कोई गीत नहीं था।
इस बीच, आम,
जामुन
एक ऋतु के फल बाँटकर अब ठूंठ के ठूंठ बन कर बैठे थे। हाथियों के झुण्ड की बात तो
रहने दो, एक लंगूर भी नहीं कूद रहा था इस डाली
से उस डाली पर।
घड़-घड़कर बादल गरज रहे थे, किसी दूर गांव के ऊपर। नवरंग पुर या
नुआपाड़ा के ऊच्पर। कभी-कभी आकाश में बिजली चमक रही थी। कभी उतर की तरफ, तो कभी दक्षिण की तरफ। कभी-कभी भरी दुपहरी कोभी बादल ढक कर रख लेती थी। कई
आशा लिये गांव वाले घर के बाहर, रास्ते के ऊपर, होठों पर खुशी और मुस्कान लिये आपस में बातें कर रहे थे, देखो, उधर देखो, बादल, सात बेटों की माँ, बनकर आ रही हैं। कोई बीड़ी सुलगा रहा था,
कोई बाड़
ठीक कर रहा था, तो कोई गीतों में सुर मिला रहा था। कई
खुशमिजाज तो पेट भर पीकर रास्ते के ऊपर मतवाले हाथी की तरह झूमते हुये घूम रहे थे।
अंधेरा छा जा रहा था, मानों किसी ने काला कंबल बिछा दिया हो
सारे आकाश में। अभी यह लटका हुआ कंबल सारे जंगल को ढक देगा। पेड-पौधे अपनी कमर से
कमर सटाकर, हाथ में हाथ फसाकर गोल-गोल नाचना चाहते
थे। मगर वे एक दूसरे से इतना दूर थे कि हाथ बढाने से भी कोई किसी की कमर को छू भी
नहीं पाते थे। हाय ! कितने बुरे दिन ! बादल नीचे आ रहे थे। मगर पेड़ अपनी ताल, और नहीं बैठा पा रहे थे।
कौन जाने रसहीन जंगल के व्यवहार से दुखित और अपमानित होकर कहीं बादल चले
गये हो, दूसरे रास्ते पर धीरे-धीरे ? बादल पीछे हटते हुये जा रहे थे। असहाय मनुष्य हाथ बढ़ाकर उनको पकड़ नहीं पाते
थे। पेड़-पौधे स्तब्ध रह गये थे। कई दिनों से कहीं खो सी गयी थीं चिड़ियें। मुश्किल
से जो एकाध जिन्दा बची थी, वे अपनी आवाज में बादलों को पुकार रही
थी
“रुक जाओ,
एक पल
के लिये रुक जाओ।”
बादल जैसे, रुठ गये थे कि नहीं रुकेंगे। बादलों के
रास्ते में यह गांव आया, इसलिये उस गांव के ऊपर से चले गये, नहीं तो गांव के साथ उनकी कैसी प्रीति ?
हाथ बढ़ाने से बादल को छू नहीं पाते थे। मनुष्यों की लंबी-लंबी दुख भरी
सांसे भी छू नहीं पा रही थी बादलों को। कभी-कभी बादल ऐसे ही अपना विपुल यौवन
दिखाकर चले जाते थे दूसरे गांव को। जंगल में रहने वाले लोग हताश और निराश हो जाते
थे। जंगल को जलाकर खेती के लिये जमीन तैयार कर रखी थी, कब से उन लोगों ने। धरती माँ को कबसे ‘सलप रस’
और ‘मुर्गे के खून’ की प्रसाद चढ़ा चुके थे। फिर भी इन्द्र
भगवान खुश नहीं हो रहे थे।
इन्द्र देवता क्रोध में थे. उन्हें मनाना पड़ेगा। इसलिये गांव वालों ने अपने
ओझा के साथ सलाह मशविरा भी किया। इन्द्र देवता को बहलाना फुसलाना पड़ेगा, सलप रस और मुर्गे की बलि चढ़ाकर। मगर इन्द्रदेवता तो लंपट देवता है। वे
सिर्फ खाने-पीने से खुश नहीं होते है। जंगल के वांशिदे आखिरकार एक हल खोज लेते
हैं। बूढ़ा ओझा के सलाह मशविरे से जमीन साफ की जाती है। सब सलप रस पीते हैं और
इन्द्र देवता को थोड़ा भोग चढ़ाते हैं। अब सभी जवान लड़कियां निर्वस्त्र हो जाती है।
उपर से इन्द्र देवता उनके रूप लावण्य का उपभोग करते हैं, किशोरियों के भरे-पूरे यौवन को देखकर। अब इन्द्र देवता रुक नहीं सकते थे।
उनका शरीर गीतों के बोलों के साथ झूम उठता था। इन्द्र के वीर्य की तरह विक्षिप्त
हो, गुच्छा-गुच्छा होकर बादल फूट पड़ते थे।
जंगल के वाशिंदे कुछ समझे या न समझे,
मगर
इतना जान जाते थे कि नारी शक्ति स्वरुपा है। वह भूदेवी है। भूदेवी के आहवान् से
इन्द्रदेवता त्राहि-त्राहि करने लगते हैं।
हल्की-हल्की बारिश के बाद, इन्द्र फिर माया रचते हैं। बादलों के
बीच में सूर्य के दर्शन होने लगते हैं। ऐसी ही आस्था और अनास्था को लेकर जंगल वाले
जीते थे। सब यही सोचते थे, कि यह सब किस्मत का खेल है। अपने-अपने
कर्मों का फल मानते थे। भाग्य के विरुद्ध जाने का उनमें साहस नहीं था। और उनके पास
कोई उपाय भी नहीं था।
वे अपनी सरलता से सिर्फ विश्वास करना जानते थे। वे केवल जानते थे दो
देवियों के बारे में, ‘करमसानी’
और ‘करममानी’ के बारे में। कर्मों के अनुसार वे फल
देती थी। कर्मा पेड़ की डाली को गाढ़कर,
कर्म देवता
की पूजा करते थे वे लोग। एक दूसरे के हाथों में हाथ फंसाकर, बालों में ‘कर्मा पेड़’ की डाली गूंथकर, दारु पीकर देवी-देवताओं को दारु का
प्रसाद चढ़ाकर गाना गाते थे नाचते थे माँदर की ताल पर।
“गायेंगे कर्मा के गीत
पर गाने का बोल नहीं है आता
शत्-शत् प्रणाम है कर्मासानी माता
प्रसन्न हो हे भगवती ! हे माता !”
ऐसा क्या दुष्कर्म किये थे उन लोगों ने ?
बादल, शैतान की हंसी होठों पर लेकर चले जाते थे जैसे घोड़े पर सवार हो। जाते वक्त
केवल दो बूंद पानी गिरा देते थे, जैसे कोई दो मुट्ठी तंदूल फेंक कर चला
जाता हो।
निरुपाय होकर, बरामदे में बैठकर, जुगाली करते हुये बुजुर्ग लोग सोचते थे कि घोर पाप का समय आ गया है। पोटली
बांधकर देश-प्रदेश जाने के लिये तैयार हो जाते थे स्वप्नदर्शी युवक। और युवतियां
साप्ताहिक हाट में जाकर गायब हो जाती थीं। कहीं,
किसी को
भी पता नहीं चलता था गांव में। गांव की युवतियां गायब हो जाती थी। और युवक कहकर
गये थे कि दो महीने में चले आयेंगे,
मगर
लौटते नहीं थे। बे-मौसम में बचा खुचा पानी,
पहाड़ के
सीने पर डालकर चले जाते थे इन्द्रदेव। झाड़ी जंगल बढ़ जाता था परन्तु खेती नहीं होती
थी। पेड़-पौधे भले ही बढ़ जाते थे, पर गांव आदमियों से खाली हो जाता था।
जो जा नहीं पाते थे वे बरामदा में केवल खंभा बनकर रह जाते थे। सिर्फ थोड़ी-सी बारिश
के लिये जंगल के वांशिंदे इतना कष्ट उठाते थे।
वे लोग जिसको नहीं देखा था, उस पर विश्वास करते थे। और जिसको देखा
था, उसको समझ नहीं पाते थे। कभी भगवान बड़े लगते
थे, तो कभी सरकार। भगवान और सरकार के
द्वन्द में, किसके आगे हाथ फैलाये, वे समझ नहीं पाते थे। धूप, मधु,
साल के
बीज, तेंदू पता, महुआ, बेंत आदि बेचते थे वे लोग, बदले में खरीदते थे भात, चावल,
सब्जी, नमक और कपड़ा। सरकार शिक्षक भेजती थी,
चावल
भेजती थी, दवाई भेजती थी, रास्ता भेजती थी, बिजली भेजती थी, मगर उदंती के उस पार कुछ भी नहीं पहुंच पाता था ये सब। पर उदंती को इस पार
से उस पार चले जाते थे शीशम, गंभारी,
साल के
पेडों की लकड़ियां।
ऐसे जंगल से गायब हो जाते थे शेर,
भालू और
हाथी. और बढ़ जाती थी नक्सलियों की फौज। शेर की दहाड़ के बदले सुनाई देती थी बंदूकों
की गोलियों की आवाजें। जंगल में तैयार होता था एक अलग भारतवर्ष। ऐसे जंगल लुप्त हो
रहे थे। लुप्त होते थे आस-पास के लोग। मगर बादल ये बातें नहीं समझते थे। दोनों
देवियां कर्मसानी, कर्ममानी भी नहीं समझ पाती थी, नहीं समझ पाते थे आँखों में सपने संजोये हुये परदेश गये हुये
युवक-युवतियां।
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