४
४
चैती ने कभी समुन्दर नहीं देखा था। सुना था समुन्दर उतना विशाल होता है कि
समुन्दर के उस पार तक हमारी निगाहें नहीं पहुँच पाती। वह असीमित जल-भंडार होता है।
जिधर देखो, उधर पानी ही पानी नजर आता है। समुन्दर
की लहरें पेट फुला-फुलाकर हाथियों की भाँति झकोले मार रही थी। दस-पन्द्रह हाथ की
दूरी तक लहरें पछाडे मार कर गिर रही थी। कितनी सारी सीपियाँ, कितने सारी मछलियां, कितने सारे कछुएँ और कितने सारे
मगरमच्छ रहते होंगे समुन्दर के अंदर !
चैती ने सिनेमा में समुन्दर को देखा था। आकाश जितना या उससे भी बड़ा होगा
समुन्दर। उसके उपर तैरती जहाजें। ऐसे ही दो-दो समुन्दर पार करने के बाद, तीसरे के बीच मौजूद एक द्वीप पर सन्यासी गया हुआ था। चैती सोच भी नहीं पा
रही थी समुन्दर के बीच कैसा होगा वह जापान देश ?
पहले-पहले
तो कुछ जगहों का फोटो भेजा करता था। नीचे रास्ता,
ऊपर रास्ता
चिकने रास्ते के उपर दौड़ रही थी खिलानौं की भाँति गाड़ियाँ। लड़कियों का चेहरा लग
रहा था जैसे हवा भरे रबर की गुड़ियाओं की तरह हो। पहाड़ पेड़, नदी, नाला,
महल, बगीचों के फोटो देखकर चैती सोचती थी इतने सुंदर देश में गया हुया है
सन्यासी! पर जहाँ सुन्दर चित्रों की तरह बने हुये हो घर द्वार, रबर की गुड़ियाओं की तरह रहते हो मनुष्य,
वहाँ उन
लोगों को क्या जरुरत पड़ गयी, जो सन्यासी जैसे एक गंवार को बुला कर
ले गये ?
जाने के कुछ ही दिन पहले चैती बोली थी “देख,
तू इतने
बड़े-बड़े समुन्दर पार करके जायेगा, मुझे तो बड़ा डर लग रहा है ।” हंसकर सन्यासी बोला “तू,
क्या
पागल हो गयी हो ? मैं इस द्वीप पर पानी-जहाज में बैठकर
नहीं जाऊँगा। मैं तो हवाई-जहाज में जाऊंगा ,आकाश में उड़ते हुए गिद्ध की तरह।”
डर गयी थी चैती। पानी में हो या आकाश में। दोनों खतरनाक है। मोटर-गाड़ी होती, तो बात कुछ अलग होती। सैकड़ों लोग जा रहे हैं,
आ रहे
हैं। वह लोग भी तो चोरी-छुपे मोटर में बैठकर रायपुर चले आये थे। जिस दिन रेलगाड़ी
से भोपाल आये थे, तो चैती डरी हुयी थी। इतनी बड़ी गाड़ी
में कितने सारे तरह-तरह के लोग बैठे हुये थे। कुछ उतर रहे थे तो फिर कुछ नये लोग
चढ़ रहे थे। रुकती-रुकती गाड़ी बढ़ती जाती थी आगे की तरफ। लेकिन उनके उतरने की जगह
भोपाल, फिर भी नहीं आ रहा था। अगर भोपाल पीछे
छूट गया तो ? फिर रेलगाड़ी चल रही थी और चलते ही आगे
बढ़ती जा रही थी।
उस दिन सन्यासी खूब हँसा था। बोला “बुद्धु कहीं की, इतना दूर कोई ट्रेन में जाता है क्या ?
जानती
हो, दो-दो समुन्दर पार होने के बाद तीसरे
समुन्दर के बीच में वह देश ? तेरे लिये समुन्दर के उपर रास्ता बनाया
जायेगा, रेल-लाईन बिछायी जायेगी क्या ?”
चैती को सन्यासी घर में कुछ-कुछ पढ़ाया करता था। जिससे चैती अपना नाम लिखना
सीख गयीथी, चिट्ठी पढ़ लेती थी। पढ़ाई में रुचि नहीं
होने की वजह से न वह कोई दूसरी किताब पढ़ पा रही थी,
न ही वह
अपने विचारों में उन्नत हुई थी।
जाने की बात तो कर चुका था सन्यासी,
पर जाने
के दिन जितने नजदीक आते जा रहे थे, उतना ही उतना मुंह लटकाकर गुमसुम बैठा
रहता था। जैसे कि कोई बड़ी चिन्ता उसे सता रही हो। कहीं मन नहीं लग रहा था, न ही था उसका कोई खाने-पीने का ठिकाना। न ही रात को नींद का। चैती बोली
“अगर मन नहीं हो रहा है, तो मत जाओ। तुझे किसीने सौगंध दिलाई है ?
कोई
जोर-जबरदस्ती कर रहा है क्या ?”
“सौगंध- वौगंध की कोई बात नहीं है चैती।
बात कुछ दूसरी है। जो तू नहीं समझेगी।”
“ऐसी क्या बात है? जो मैं नहीं समझ पाऊँगी। मैं भले ही पढ़ी-लिखी, नहीं हूँ, क्या तुम्हारे मन क बातें नहीं पढ़
पाऊँगी? कुछ ही दिनों में चिन्ता से तुम्हारा
शरीर जलकर लकड़ी के कोयले की तरह काला हो गया है। क्या मैं नहीं जान पा रही हूँ ?”
सन्यासी ने देखा कि चैती का मन भारी होने लगा है, और थोड़ी ही देर के बाद वह रो पड़ेगी। अपने गांव को याद कर आँसू बहायेगी, बेचारी। इस शहरी जगह में, वह सहज नहीं हो पा रही थी। बहुत ही
अकेली हो गई थी। सन्यासी कहने लगा-
“जरा इमानुअल साहब के लिये तो सोच। उनकी
बात मैं काट नहीं पाया।”
“क्या कहना चाहते हो? साफ-साफ कहो" चैती ने पूछा ।
“तुम्हें यह जगह अच्छी नहीं लग रही है ? मुझे भी कहाँ अच्छी लग रही है ?
चलो, हम लोग अपने गांव वापिस चलें। अपना गांव नहीं तो, सुन्दरीखोल गांव में जाकर रहेंगे,
नहीं तो
सिनापाली गांव में।”
“मुझे यहाँ कोई असुविधा नहीं हो रही है, रे चैती ! बात यह नहीं है। बात दूसरी है। हमारे यहाँ क्या असुविधा है, बता तो। मिशन में बच्चों को चित्रकला सिखा रहा हूँ। यह कोई बड़ा काम है क्या
? इस में हम दोनों का दाना-पीना चल जा
रहा है। गांव जायेंगे, तो खायेंगे क्या? दोनों वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी। उसके बाद, क्या गांव वाले हमको इतनी आसानी से अपना लेंगे ? हमारे ऊपर झूठ-मूठ के लांछन नहीं लगायेंगे। हम लोग गांव के माहौल में रह
नहीं पायेंगे। सच बोल, क्या तुझे यहाँ कोई पूछता है कि
तुम्हारी जात-बिरादरी क्या है ? तेरा गोत्र क्या है ?यहाँ तो, जैसे तूने खाया कि, नहीं खाया, कोई पूछने वाला नहीं। ऐसे ही, यहां तू क्या करती है ? क्या नहीं करती है ? इस तरफ कोई सोचता भी नहीं है।
असली बात क्या, मालूम है ? यह ईमानुअल साहब मेरे लिये तो भगवान है। पिछले जन्म में मैम साहब शायद मेरी
माँ थी। नहीं तो, मैं क्या चित्र बनाता, उस पाँच-छ साल की उम्र में ?
बुढ़ी
टांगरी पहाड़ के उपर बड़े पत्थर पर चाँक लेकर मैं चित्र बनाता था, जैसे हिरण को बाघ ने दबोच लिया है और बना शबर अपने तीर से बाघ को निशाना
बना रहा है, समझी चैती। मेरी मां हमेशा जंगल तथा
बना शबर की कहानी सुनाया करती थी। जब मुझे नींद नहीं आती थी, भूख लगती थी, या तो बाप को जब याद करता था। इसलिये
मेरे मन में यह चित्र बना हुआ था। वह हिरण,
क्या
हिरण जैसा दिख रहा था ? और क्या बाघ, बाघ जैसा ? फिर भी,
मैम
साहब मुझे बुलाकर ले गयी और गाड़ी में बैठाया था। ड़र के मारे, मैं पसीना-पसीना हो गया। तभी उसने मेरे हाथ में दो चाकलेट दी थी। ईसाई
बस्ती के कैम्प में, समझ,
मेरी
किस्मत ही बदल गयी। कितने सारे चित्र बनाने के लिये बोली थी मैम साहब ? ठीक समय पर, अगर मेरी माँ नहीं पहुंचती, तो और भी कितने सारे चाकलेट मुझे मिल गये होते।”
बोलते-बोलते चुप-सा हो गया सन्यासी। जैसे कि वह अपने बचपन में लौट आया हो।
एक-एक कदम आगे बढ़ने की कोशिश करने पर भी,
वह अपने
वर्तमान में नहीं पहुंच पा रहा था।
सन्यासी के मटमैले भूरे बालों में ऊंगली फेरते हुये चैती ने कहा-
“इन्हीं बातों को आप कितनी बार सुनायोगे
? तेरे धरम-माँ के बारे में सुनते सुनते
मेरे कान भी पक गये हैं।”
ईमानुअल साहिब की बीवी को चैती सन्यासी की धरम माँ के नाम से बोलती थी।
अपने अतीत के अंधेरे में से निकल कर आया हो जैसे, सन्यासी। बोला “एक बार और अगर सुन लेगी तो, तेरे कान क्या बहेरे हो जायेंगे ?
दो
चाँकलेटें ! समझी, चैती। इन्हीं दो चाकलेटों के खातिर, मैं गाँव छोड़ने को राजी हो गया था। जिस दिन इमानुअल साहिब की बीवी मेरी मां
को बोली, दे दे इस बच्चे को, मैं आदमी बना दूंगी। उस दिन,
रात भर
मेरा बाप घर के बाहर बैठा रहा, बिना पलक झपकाये। जैसे कि मैम साहब मेरे
घर में घुसकर मुझे चुराकर ले जा रही हो। मुझे जबरदस्ती से ईसाई बना दे रही हो। सोच
रहा था कि वह क्या मुझे आदमी बनाकर पैदा नहीं किया ?
जो मैम
साहिब मुझे आदमी बनायेगी। मेरे हाथ,
पैर सब
कुछ तो आदमी जैसे ही है, बड़ा होने पर जवानी भर आयेगी इन अंगों
में। मेहनत-मजदूरी करके कमा लूंगा। तब यह आदमी बनाने का मतलब क्या है? सवेरे-सवेरे बाप बोला "जाने दो उसे,
यहाँ तो
एक वक्त का खाना मिलता है तो एक वक्त का फाँका पड़ता है। मिशन में रहेगा तो दाल-भात
खाकर जीवन जी लेगा। हाथी जंगल में पले-बढ़े तो भी,
वह राजा
का ही होता है। आम के पेड़ पर अगर नीम के फल लगें,
तो क्या
लोग उसको नीम के फल कहेंगे ? जाने दो। दोनों वक्त का खाना तो मेरे
बेटे को मिलेगा, आराम से खाने को।”
माँ की आँखों के सामने जैसे कि गरमा-गरम दो थाली चावल की तस्वीर उभरकर
दिखाई देने लगी हो। उसका सारा अहम चूर-चूर होने लगा था। बोली “मैं उसे छोड़ दूंगी जो, पर मेरा बेटा ईसाई नहीं होना चाहिये।”
“ठीक है,
ठीक है, बस यह बात मैं मैम साब को कह दूंगा। तू और अभी अपना मन उदास मत कर।”
फिर भी मुझे छोड़ने के लिये माँ की तनिक भी ईच्छा नहीं हो रही थी। मैं सोच
रहा था, कि इसमें माँ को क्या असुविधा है ? मैम साहिब तो मुझे मारती-पीटती नहीं थी। पास बैठाकर केवल चित्र बनवाती थी।
और बदले में चाँकलेट देती थी। फिर मुझे छोड़ने की बात पर माँ इतनी परेशान क्यों हो
रही थी ?
एकदिन सचमुच मैम साहिब मुझे लेने के लिये आ गयी। उसकी बड़ी गाड़ी हमारे घर के
सामने खड़ी हो गयी थी। माँ ने मेरी कंघी की। कमर से अपना पल्लू निकालकर मेरा मुंह
पोंछा। कुसुम-बेर से भरी छोटी पोटली मेरे हाथ में थमा दी और बोली “मैमसाहिब की सारी बातें तुम मानते रहना। घर याद आने से मैम साहब को बताना।
कभी-कभी यहाँ ले आयेगी।”
घर की याद ? आँखों में पानी भर आया। रोने को मन हो
रहा था। माँ को पकड़कर खूब रोया। नहीं,
नहीं, मैं माँ को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। बाप समझा रहा था “जा, मेरे बेटे, उनके साथ जाने से एक दिन तू कलेक्टर बनेगा,
गाड़ियों
में घूमेगा, अच्छा खाने-पीने को मिलेगा। अच्छा
पहनने को मिलेगा। कितनी सारी नय-नयी जगहों पर घूमेगा ?”
“मैं अपनी माँ को कभी देख पाउंगा, क्या ?”
“तुझे मिलने, तेरी माँ को लेकर मैं जरुर आऊँगा।”
“माँ की गोद में से खींचकर, बाप ले गया मुझे जबरदस्ती। और मैम साहिब की गाड़ी में बैठा दिया। तू विश्वास
नहीं करेगी, चैती। ये बाहें देख रही हो, इनको इतनी जोर-से खींचा था मेरे बाप ने। कि आज तक इनमें दर्द-भरा हुआ है।”
तकिया के ऊपर मुंह डालकर सिसक-सिसककर रो रही थी चैती।
“क्या हो गया? क्यों ऐसे रो रही हो चैती ?”
चैती के बाल संवारते हुये सन्यासी बोला “माँ की याद बहुत सताती है, रे ! मन ही मन में, माँ को खोजता रहता हूँ। एक दिन भी बाप
मिशन में नहीं आया। बोला था, माँ को लेकर मिलने जरुर आयेगा।”
उस बार जगदलपुर मशीन स्कूल से चार दिन के लिये गांव आया था। बचपन से ही
बाहर रहने के कारण से गांव-घर, सब कुछ उसको अनजाने से लग रहे थे। किसी
के साथ खुले-मन से बातें नहीं कर पा रहा था। यहीं तो अपना घर, अपने लोग, बोर्डिंग-स्कूल में रहते समय जिनको याद
करता रहता था। यहाँ की जिन्दगी और वहाँ की जिन्दगी में बहुत अन्तर है।
प्रागैतिहासिक पत्थर के ऊपर, यह तो आधुनिक कथा निखारने जैसी बात हो।
वही नाक-कान, वही शरीर का रंग, वहीं जबड़े की हड्डी। मिट्टी की वही महक,
पर जैसा
कि किसने तराश कर अलग चिकना-सा बना दिया हो। वही स्रोत, पर पहचान है जरा हटकर ! जंगल सन्यासी के लिये बड़ा प्यारा था। बचपन से ही वह
बूढ़ी टांगरी के उपर कितने सारे चित्र बनाया करता था। काले पत्थर के उपर, जैसे कि वही सका स्लेट हो। गांव में एकाकी,
व लीक
से हटकर रहने वाला सन्यासी चला आया था जंगल में। ये जंगल ही उसके अपने थे। पेड़, नदी, नाला पहाड़, पत्थर, झरना सभी मूकदर्शक थे। पर सन्यासी को
देखते ही गप करना शुरु कर देते थे। पाकेट में से बांसुरी निकालता था सन्यासी।
साहड़ा पेड़ के नीचे चिकने पत्थर के उपर बैठकर बाँसुरी के सुर लगाता था। बड़े ही
निसंग व करुणा से भरे थे वे बांसुरी के सुर। एक सूना-सा घर, एक खाली-हांडी, आधा-भूखे बच्चे की आँखों से निकल रही
निराशा, सुरों का रूप लेती जा रहीं थी। लड़की की
तरफ उसकी नजर नहीं, पता नहीं कबसे एक गुच्छा कुरैई के फूल
बालों में गूंथकर महुआ पेड़ के नीचे,
लाल रंग
के फ्राक पहने और छाती के उपर दुपट्टे समान एक गमछा डालकर खड़ी हुई थी वह लड़की। जब
सन्यासी का बांसुरी बजाने से ध्यान भंग हुआ तो उसने देखा कि वह लड़की मंद-मंद
मुस्कान बिखेरते हुये, पलक झपकते ही झाड़ियों के पीछे गायब हो
गयी। सन्यासी ने बांसुरी को अपने जेब में रखकर,
उस लड़की
को तलाशने लगा। उसने देखा कि वह उदंती नदी के बीच में स्थित पत्थरों पर कूदते-फांदते
तेजी से आगे की तरफ दौड़ी जा रही थी।
क्या कर रही थी वह लड़की जंगल में ?
उसको डर
नहीं लग रहा था ? कौन थी वह ? एक मायाविनी की तरह, हाथों की पहुँच के बाहर, धीरे-धीरे चली जा रही थी।
“ऐ रुक,
रुक, कहाँ जा रही है तू ? ऐसे बोलते-बोलते सूखी उदंती नदी को
सन्यासी ने पार कर लिया।
उदंती नदी का दूसरा किनारा, पत्थर काटने वाले लोगों के कई गुट, कुछ मर्द और कुछ औरतों के बीच वह लड़की इतने समय तक खो चुकी थी। फिर भी
सन्यासी आगे बढ़ते ही जा रहा था- लाल फ्राक व लाल गमछे वाली लड़की को खोजने के लिये।
देखा, वह लड़की अपने नाजुक हाथों में हथौड़ी
लिये पत्थर तोड़े जा रहीं थी। कोई अगर देखेगा तो उसे यह विश्वास ही नहीं होगा, कि यही लड़की कुछ देर पहल पत्थर तोड़ना छोड़ बांसुरी सुनने चली आयी थी उदंती
नदी के उस छोर पर। लड़की तो ऐसा व्यवहार कर रही थी,
कि वह
बांसुरी वादक को पहचानती ही नहीं। कुछ देर पहले घटी हुई घटनाओं से अनजान सी लगने
का बहाना कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह लड़की,
आदिकाल
से पत्थर तोड़ते ही जा रही हो अपने होठों पर एक स्थायी गंभीर मुस्कान लिये हुए।
लौट आया था उस दिन सन्यासी। लेकिन उस लड़की ने पलास के फूलों की भाँति उसके
ह्रदय में आग लगा दी थी। अगले दिन, फिर अगले दिन। फिर अगले दिन सन्यासी
जंगल की तरफ अपने आप अग्रसर होते हुये अपने पांवों को रोक नहीं पाया। धीरे-धीरे
उसके बांसुरी के स्वर बदल से गये। झरने की तरह झंकृत हो रहे थे जैसे। चांदनी के
तरह फैल रहे थे जैसे। मधुमक्खी के छते से बूँद-बूँद गिरते शहद की मीठी धार की तरह
बदल रहे थे जैसे बांसुरी के सुर। कुछ ही दूर गाल पर हाथ देकर बैठी थी वह किशोरी।
अपने पत्थर तोड़ने वाले कष्टों को भी भूल गयी थी। भूख को भी भूलकर , उसने अपने ह्मदय के सब बंद दरवाजे खोल दिये थे।
क्या उस समय चैती को भगाकर ले जाना उसकी भूल थी ? अगर प्रेम सभी दुखों का हरण कर लेता है,
तो उसको
भगाकर ले जाने में क्या दिक्कत थी ?
एक दिन
हो, एक पल हो, सपनों के साथ जीने में समस्या क्या है ?
अब चैती को छोड़ सुदूर विदेश जाते समय,
पता
नहीं, क्यों सन्यासी का मन उदास हो जाता था।
किसके पास, किसके भरोसे में वह छोड़कर जायेगा चैती
को ? अपने मन की बातों को छुपाते हुये
सन्यासी ने कहा मुझे विदेश जाकर लौट आने दे। हम लोग अपने गांव चले जायेंगे। तेरे
घर जायेंगे। आते समय मेरे माँ-बाप को साथ ले आयेंगे। गांव से दूर एक किनारे पर हम
अपना नया घर बनायेंगे, अपने हाथों से दीवार पर तुम “इड़ीताल” के चित्र बनाना।”
इस समय चैती एक अलग दुनिया में थी। वहां सीमेंट, कंक्रीट के घर नहीं, वहाँ मोटरगाड़ी नहीं, भीड़भाड़ नहीं। भोपाल जैसा शहर नहीं। वहां नियम कानून मानने वाले मिशन स्कूल
के लोग नहीं। जैसे वह किस निर्जन द्वीप से मुक्त हो गयी हो। जिधर देखेगी, नजर आयेगा खुला आकाश। जिधर पांव रखेगी उधर होगी हरे-भरे घास के गलीचे। किसी
भी नाम से अगर पुकारेगी, तो उस तरफ देशी जानी-पहचानी आवाज सुनाई
पड़ेगी। कोई बोल रहा होगा “तू चैती है ना ?” झरने की भाँति पहाड़-पत्थरों के बीच में खेत-खलिहान को पार करती हई भागने
लगेगी वह उदंती नदी की तरफ। अभी भी चैती तन्द्रा में थी। उसका मुँह था सन्यासी के
सीने पर, बालों के अंदर थिरक
रही थी सन्यासी की ऊँगलियाँ. जोर से उसे नींद आ रही थी। अपने अंदर ही अंदर
वह देख रही थी।
दूर पहाड़, पास में नदी,
एक छोटा सा घर, एक छोटी सी बाड़ी
दूर जंगल, महुआ के फूल
पास में पहाड़, पास में नदी
नीला आकाश, सवेरे के पंछी
साल के जंगल, मिट्टी के घर
लोरियाँ गीत, बांसुरी के स्वर
रेल नहीं, बस नहीं,
नहीं
चलती है बैलगाड़ी
पंछियों के गीत, बांसुरी के सुर
माँदर के ताल, झरनों के शब्द
धांगड़ी नाच, पास में घर
पास में नदी
महुँआ के फूल, बांसुरी के सुर
चिड़ियों की चिंचिंहाट, बैलगाड़ी
दूर में पहाड़, दूर में नदी
नीला आकाश, छपरीले घर
झरनों के शब्द
धांगड़ी नाच
दूर में पहाड़, पास में नदी
फूलों का बाग, साल के जंगल
लोरिया गीत, बांसुरी के स्वर
दूर में पहाड़, दूर में नदी
Comments
Post a Comment